________________
१२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहासभाग २
करके एकान्त स्थान में निर्भय हो योग-साधना करते थे। वे तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किन्तु वर्षा ऋतु को विताने के लिए वे चार महीने एक स्थान पर अवश्य ठहरते थे और मौनपूर्वक तप का अनुप्ठान करते थे । वे अट्ठाईस मूलगुणों का बड़ी दृढ़ता से पालन करते थे। इस तपस्वी जीवन में महावीर ने अनेक देशों, नगगें और ग्रामों आदि विविध स्थानों में विहार कर तप द्वारा प्रात्म-शोधन किया। वे इन्द्रियजयी कषायों के रस को सुखाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करते थे। ध्यान में स्थित हो आत्मतत्व का चिन्तन करते थे। वे ध्यान में इस तरह स्थित होते थे जैसे कोई पापाण-मूर्ति स्थित हो। वे हलन-चलन से रहित निष्कम्प मूर्ति हो जाते थे।
केवलज्ञान
भगवान महावीर ने अपने साधु-जीवन में अनशनादि द्वादश कठोर दुर्धर एव दुप्कर तपों का अनुष्ठान किया। भयानक हिस्र जीवों से भरी हई अटवी में विहार किया। डास-मच्छर, शीत, उष्ण और वर्षादिजन्य घोर कप्टों को महा । माथ ही, उपमर्ग-परिपहो को सहन किया परन्तु दूसरों के प्रति अपने चित्त में जरा भी विकति को स्थान नही दिया। यह महावीर की महानता और सहनशीलता का उच्च आदर्श है। उन्होंने बारह वर्ष पर्यन्त मौनपूर्वक कठोर तपश्चर्या की। श्रमण महावीर शत्रु-मित्र, मुख-दुग्व, प्रगमा-निन्दा, लोह-काचन और जीवनमरणादि में सम भाव को-मोह क्षोभ से रहित वीतराग भाव को-अवलम्बन किये हये थे।। वे स्व-पर कल्पना रूप अहंकार ममकारात्मक विकल्पों को जीत चुके थे और निर्भय होकर मिह के समान ग्राम-नगरादि में स्वच्छन्द विचरते थे । महावीर अपने माधु-जीवन में वर्षा ऋतु को छोड़कर तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नही ठहरे। उनके मौनी-साध जीवन में भी जनता को विशेष लाभ पहुंचा था। अनेकों को अभयदान मिला, अनेकों का उद्धार हया और अनेक को पथ-प्रदर्शन मिला। भगवान महावीर ने श्रमण अवस्था में थावस्ती, कौशाम्वी, वाराणसी. राजगह, नालन्दा, वैशाली आदि नगगें तथा राढ़ आदि देशों में विहार किया और अपनी योग-साधना में निष्ठता प्राप्त की। कौशाम्बी में तो चन्दना की बेड़ो टूट गई। उसने नवधाभक्ति से उन्हें जो आहार दिया, उसमे उसने सातिशय पुण्य का मचय किया। उसे सेठानी की कैद से छुटकारा मिला, दुःख का अवसान हुआ।
यद्यपि यमण महावीर के मूनि-जीवन में होने वाले उपसर्गो का दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य के ममान उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, किन्तु पांचवी शताब्दी के प्राचार्य यतिवृपभ रचित तिलोय पण्णत्ती के चतुर्थाधिकार गत १६२० नम्बर की गाथा के निम्न-सत्तम तेवीसतिम तित्थयराणं च उवसग्गो' वाक्य में सातवे, तेईसवं और अन्तिम तीर्थकर महावीर के सोपसर्ग होने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इससे महावीर के सोपसर्ग जीवन का स्पष्ट आभाम मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्ति में काम लिया गया हो; परन्तु श्रमण महावीर के सोपसर्ग माधु जीवन से इनकार नही किया जा सकता। उत्तर पूराण में महावीर के सोपसर्ग जीवन की घटना का उल्लेख मिलता है। उसमें लिखा है कि-किसी समय भगवान महावीर भ्रमण करते हा उज्जैनी की प्रतिमुक्तक स्मशान भूमि में प्रतिमा-योग ध्यान से विराजमान थे। उन्हें देख कर महादेव नाम के रुद्र ने अपनी दुष्टता में उनके धैर्य की परीक्षा लेनी चाही। अतः उसने रात्रि के समय अनेक बडे बडे वंतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया। वे तीक्ष्ण चमड़ा छील कर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना चाहते थे।
१. सम-सत्तु-बन्धु वग्गो सम-सुह-दुक्खो पसंस-रिणद-समो। सम-लोट-कंचरणो पुरण जीविद-मरणे समो समणो॥
-प्रवचनसार ३.४१