Book Title: Jain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Rameshchandra Jain Motarwale Delhi

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Page 16
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ तत्पश्चात् शिखर जी से संघ का विहार कराके जब श्री १००८ बाहु बलिजी के दर्शनार्थ दक्षिण में दानवीर, धर्मवीर श्री नाथमल्ल जी काशलीवाल ने संघ निकालकर, संघ में रह कर बाहुबलि जी के दर्शन कराकर संघ को कोल्हापुर में चतुर्मास कराया; तब दिल्ली की जैन समाज ने पुनरपि चतुर्मास की प्रार्थना करके वापिस लाने में ला प्रतार्पासह जी मोटर वाले, इनकी धर्मपत्नी श्रीमती इलायची देवी ने अपनी ओर से पूर्णतया सहयोग देकर सघ की प्रभावना के साथ दिल्ली लाकर अपने तन, मन, धन, से चतुर्मास की समाप्ति तक पूर्ण सेवा करके धर्म लाभ लिया । ६ अयोध्या पंचकल्याणक अयोध्या के पंचकल्याणक में जो वहां की प्रभावना, सहायता की श्रावश्यकता में तादात से अधिकतर ला० प्रतार्पासह् जी की प्रेरणा से ला० रामेश्वरदयाल जो, बजरगवली जी इन्ही के सहयोग से यह प्रतिष्ठा सुचारू रूप से चलकर वहां श्री अयोध्या में प्रजैन, ब्राह्मणों, विद्वानां एव महन्तों ने भी इस पूजा प्रतिष्ठा की अत्यन्त प्रशसा की तथा पूर्ण सहयाग भी दिया । लाला प्रतापसिह जी ने अपने परिवार के साथ वहा की पूर्ण जवाबदारी अपने ऊपर लेकर १५-२० दिन तक अपना सारा व्यवसाय इत्यादिक पूर्णतया त्यागकर इस पंचकल्याणक में पूर्णतया भाग लेकर अपूर्व पुण्य का संचय किया। उनमें जन धन इत्यादि की त्रुटि न हो उस तरह से तन, मन, धन से और भी माधर्मी जन भाइयों के साथ सेवा में तत्पर रह । वहा पच कल्याणक में लाखों रुपया से दान में असमर्थ एवं दीन लोगों को सहायता देकर उन लागा की सुचारु रूप सग्रजीविका इत्यादि का भार भी श्री रामेश्वर दयाल जा और आप दानां न उठाया था पचकल्याणक के पश्चात् महाराज जी का चातुर्मास संभवतया लखनऊ तथा वाराबका में होन का पूर्ण सम्भावना थी । परन्तु एकाएक राम्मदं ।शखर के विशेष मामले को लेकर लाला प्रतापसिह जी ने पुनः प्रार्थना की कि श्री शिखर जी का मामला सभवतया राजधाना में चतुर्मास होने से मुलझ जाय तो उत्तम रहगा ऐसा विचार करके और अपने निजी खर्च में संघ दिल्ली लाकर उनकी भावना सेवा करन की प्रार्थना की थी परन्तु अकस्मात ग्रायु कर्म की गति रुकने से या देव का प्रकाप हान से लाला जी महाराज का सेवा छोड़कर पूर्व पुण्य के सहित परलोक सिधार गए। क्योंकि कर्म किसी को भी नहीं छोड़ता । तीर्थकर, चक्रवर्ती इत्यादि की भी यही स्थिति होती है । यथा - "कर्म गति टारी नाहि टरं" कर्म ने ऐसे वीरो का भी नहीं छोड़ा कर्म की ऐसा विचित्र गति है । इस कहावत के अनुसार ला० प्रतापसिंह जी न महाराज की सेवा से वंचित होकर प्रयाण किया, कर्म के आगे किसी का भी वश नही चलता । लाला प्रतापसिंह जान अपने पुरुषार्थ से कमाये हुए धन को अनेक स्थाना पर वितरण करके महान पुण्य का संचय किया । आपने एक हाइ स्कूल खोलकर अनका जैन जनतरां को विद्या दान देकर उनकी सेवा करने का उनका उत्थान करने का प्रयास किया था। इस प्रकार उन्हान अनेक स्थानों में विद्या के निमित्त दान स्कूल या पाठशाला खोलकर दीन-हीन जनो का उपकार किया है। नेपाल, नागपुर, पंजाब, रोहतक फिरोजाबाद, जयपुर इत्यादि स्थानों पर इनका कार्य आज भी अधिकाधिक रूप से चल रहा है। उसी के अनुकरण में उनकी धर्म पत्नी इलायची देवी ने भी अपनी सम्पूर्ण सुसतानी को भी न्याय मार्ग के अनुरूप प्रवर्तन किया है। इस तरह उनको भी सन्मार्ग में लगाये हुए पूर्ववत् अपने व्यवहारादि सहित उनके जीवन में जो धार्मिक अभिरुचि उत्पन्न की है यह अपूर्व बान है । लाला प्रतार्पासह जी ने अपने जीवन को जिस तरह बिताया उनकी ही परोपकारी वृत्ति थी। सम्पूर्ण विश्व का बाल गोपाल जानता है। आप जैन व अजैन समाज की दृष्टि में आदर्श तथा मुख्य व्यक्ति थे । प्राज इनके सुपुत्र श्री रमेशचन्द्र जी सामाजिक, धार्मिक कार्यों में अपने तन, मन, धन से सेवारत है, प्रस्तुत ग्रन्थ इन्हीं के सौजन्य से प्रकाशित हो रहा है । आपका परिवार हमेशा हा चारों दानों में अग्रणी रहता है, प्रापके गुप्त दान से कितने ही असमर्थ भाई बहिनों का जीवन सफलता पूर्वक चल रहा है, सारा परिवार पूर्ण धार्मिक विचारों का तथा गुरू भक्त है, हम इनके परिवार की उच्च सफलता की कामना करते हैं । - वैद्य प्रेमचन्द जैन दिल्ली ।

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