Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ आमुख कुछ समय पूर्व मुझे अमरकंटक में पांच दिन पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के सानिध्य में व्यतीत करने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अमरकंटक भारत के विशेष तीर्थों में से है। वह नर्मदा तथा दो अन्य नदियों का उद्गम है। बड़ा रमणीक स्थान है। आचार्यश्री की उपस्थिति ने उस रमणीकता में चार चांद लगा दिए थे। उन पांच दिनों में आचार्यश्री से विभिन्न विषयों पर जो चर्चाएं हुईं वे मेरे लिए चिरस्मरणीय थीं। उन चर्चाओं में धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, साहित्य, देश और समाज की दशा और दिशा आदि भी विषय छूटे नहीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि उन सारगर्भित चर्चाओं का मूल अधिष्ठान मानव उसका जीवन और मानवीय मूल्य थे। आचार्यश्री के संघ में कई मुनि थे, जिन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। वे सारी चर्चाओं में बड़े मनोयोग से सम्मिलित रहे, उनके चेहरों पर निरंतर मुस्कराहट थी। स्पष्ट था कि चर्चाएं उनके आनंददायक थीं। वस्तुतः अपने गुरु की भांति वे स्वयं ज्ञान, विद्वता और वक्तव्यकला से अभिसिक्त. इन अंतेवासी संतों में मुनि प्रमाणसागर जी की छाप मेरे मन पर बड़ी गहरी पड़ी। जब-जब उनसे बातचीत का प्रसंग आया, मैंने पाया कि वह विद्वान हैं, किन्तु विद्वता के बोझ से दबे नहीं हैं, बड़े सरल हैं और सहज हैं। बाद में जब कटनी में मैंने उनके गूढ़ प्रवचन सुने तो मुझे अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति हुई। जैन तत्त्व ज्ञान को वह कथा-कहानियों के माध्यम से इतना ग्राह्य बना देते थे कि श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर उनकी बात सुनते थे। बाद में भोपाल में भी उनसे लंबी चर्चा हुई। इन्हीं मुनि महाराज को आज मैं एक नए रूप में देख रहा हूं, वह रूप है लेखक का। उनकी पुस्तक जैन धर्म और दर्शन की पांडुलिपि मेरे सामने है। विषय नया अथवा अछूता नहीं है । उस पर पहले भी अनेक लेखकों ने पुस्तकें लिखी हैं। वे सुपाठ्य, ज्ञानवर्धक और उपयोगी हैं । किन्तु प्रस्तुत पुस्तक को अपनी विशेषता है। मुनि साधक होते हैं। वे जो कुछ कहते या लिखते हैं वह उनकी साधना में से प्रस्फुटित होता है। गांधीजी कहा करते थे,“मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है।” इसी प्रकार साधक के हाथ में हर घड़ी साधना की तुला होती है। उस तुला पर तौल कर ही वह अपनी बात कहता है। इस पुस्तक की विशिष्टता यही है कि कोरे पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर नहीं लिखी गई है, इसके पीछे लेखक की अनुभूतियां हैं, जो पुस्तक को अधिकाधिक ग्राह्य बना देती हैं। पुस्तक की पृष्ठभूमि में लेखक धर्म और दर्शन को परिभाषित करते हुए कहते हैं :

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 300