Book Title: Jain Dharm Prakash 1944 Pustak 060 Ank 09
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपनी ढपली अपना राग । अपनी अपनी लेकर ढपली, रंग जगत आलाप रहा । मेरा सच्चा हूं सच्चा, ये ही गायन गाय रहा ॥ १ ॥ सत्य रहा है इसमें कीतना, यह तो विरला जान रहा । - मैं हूं सच्चा मेरा सच्चा, हर व्यक्ति यह पुकार रहा ॥ २ ॥ बड़े बड़े इतिहास पुराने, उनको जाय टटोल रहा । छोटा-सा इतिहास स्वयं का, उसको है नहीं जान रहा ॥ ३ ॥ आया कहां से कौन हूं मैं ?, और अब जाना है कहां रहा ? नहीं मनन कर इसका कुछ भी, विरथा गौते खाय रहा ॥ ४ ॥ 'देह वस्तु क्या ? आत्म वस्तु क्या ?, नहीं स्वपर को जान रहा । और धर्म मर्म क्या ? पाप पुन्य क्या ?, इस से भी अज्ञान रहा ||१५|| हिंसा अहिंसा सत्य मृपा के, भेद शास्त्र क्या बता रहा । चोरी परदारा परिग्रह के, प्रमाण से अनभिज्ञ रहा ॥ ६ ॥ खड़ा हुवा है जीस भूमिपे, उसको नहीं पहिचान रहा । बड़ी बड़ी फिर बातें कर के, अपना राग आलाप रहा ॥ ७ ॥ छिद्रान्वेशन की दृष्टि से, सारे जग को निहार रहा । जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, आये नजर यह भूल रहा ॥ ८ ॥ सम्यग्ज्ञान के तत्त्व विना, नहीं आये समझ में सत्य महा । सर्वज्ञदेव की सत्य श्रद्धा विन, होवे नहीं कृतकृत्य यहां ॥ ९ ॥ इसलिये वह सत्य ज्ञान कर, मिथ्या तिमिर जो छाय रहा। शीघ्र हटाओ जैन धर्म से, जो प्रकाश* फैलाय रहा ॥ १० ॥ धर्म जैन के धर्म और तो, भ्रमके अन्दर डाल रहा । बतलावे परमातम एक ही, करता है कल्याण महा ॥ ११ ॥ जैन धर्म बतलावे ऐसा, यह बने आत्मपरमात्म महा । शक्ति रही है इसमें ऐसी, सुपुरुषार्थ से यह होती महा ॥ १२ ॥ देशविरति और सर्वविरति, यह दोनों प्रभुने मार्ग कहा । इन दोनों में सत्य श्रद्धा कर, धारो जो हो योग्य रहा ॥ १३ ॥ फिर मेरा सच्चा या सच्चा मेरा, इसका करना निश्चय यहां । मेरा मेरा और मैं हूं मैं हूं, छोड़ो यह मिथ्यात्व महा ॥ १४ ॥ काल अनादि से यह रोसे, अपना आतम भटक रहा । जैसे भ्रम कर घांची बैल वह, घरका घरमें खड़ा रहा ॥ १५ ॥ इसीलिये अब सब उद्यम से, सद् उद्यम वह होय यहां । जो बने आत्म से यह परमातम, ये ही मुख्य ध्येय कहा ॥ १६ ॥ * जैन धर्म प्रकाश । For Private And Personal Use Only

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