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दर्शन और ज्ञान
विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही (2) के आलोचक हैं। यह मत कि दो चेतन क्रियाएं एक साथ घटित नहीं हो सकतीं, स्वीकार करने योग्य है, और मत (2) तथा ( 3 ) इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं।
फिर भी, क्रमिक सिद्धान्त में जो सत्यता है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि इससे सर्वशता को समझने तथा उसका विश्लेषण करने का मार्ग दिखाई देता है । किन्तु स्वयं सर्वज्ञ में 'क्रमिकता' को स्वीकार करने में कठिनाई है । तीसरे मत में एकरूपता की जो धारणा है वह स्वीकार्य है, क्योंकि सर्वज्ञ में एकसाथ उद्भूत होने का अर्थ होगा- ऐसी चीज का प्रकट होना जिसकी पहले जानकारी नहीं थी, और इसका मतलब यह मानना होगा कि वह कुछ अज्ञानी है ।
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एक जैन विचारक यशोविजय इन तीनों सिद्धान्तों में निहित सत्यता के बारे में लिखते हैं: "जो दर्शन तथा ज्ञान की स्वतंत्र सत्ताएं स्वीकार करता है, परन्तु क्रमिकता को नहीं मानता, वह उस प्रायोगिक दृष्टि से सही है जिसमें भेद किया जाता है; जो दर्शन तथा ज्ञान के क्रमिकता से उद्भूत होने में विश्वास करता है वह उस विश्लेषणात्मक दृष्टि से सही है जिसमें कार्य व कारण की सीमा में भेद किया जाता है; और जो दर्शन तथा ज्ञान की एकरूपता को मानता है वह उस संश्लेषणात्मक दृष्टि से सही है जिसमें भेद को नष्ट किया जाता है और एकरूपता की स्थापना की जाती है । अत: इन तीनों में से किसी भी मान्यता को गलत नही कहा जा सकता ।
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7. एम० एल० मेहता के ग्रन्थ 'जैन साइकोलॉजी' (अंतसर : सोहनलाल जैन धर्म प्रचारक समिति, 1955), 56 में उबधुत ।