Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 169
________________ गुणवान सिद्धान्त से, कषायोदय के कारण नीचे गिरते हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि हिन्दू दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों की भी मान्यता थी कि व्यक्ति को गुरु ही मुक्तिपथ में दीक्षित करता है । परन्तु जैन दार्शनिकों के मतानुसार, व्यक्ति को कभी-कभी अचानक सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाती है। इसका कारण यह बताया गया है कि, पूर्वजन्म में दीक्षित हुआ व्यक्ति तब धर्म का पालन न करके सब कुछ भूल जाता है, और फिर बाद के जन्म में उसकी स्मृति जागृत होती है। 167 जैन दार्शनिकों ने यह स्पष्ट किया है कि कषायों के कारण आदमी मुक्तिपथ की सीढ़ी से नीचे गिर सकता है। यदि वह पहली अवस्था पर आ गिरता है, तो उसे मुक्तिपथ पर नये सिरे से चलना पड़ता है । अवस्था 3: मिश्र गुणस्थान : यह व्यक्ति के मिश्र भावों वाला स्तर है। इसमें आदमी सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व के बीच में आंदोलित होता रहता है। मन सतत उद्विग्न रहता है, और सम्यग्दृष्टि में स्थिर नहीं हो पाता । सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति के बाद भी इसका लोप हो जाता है, परन्तु मन फिर सम्यग्दृष्टि पर पहुंच जाता है । द्वन्द्व की यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिकती, क्योंकि व्यक्ति इस स्थिति से ऊपर उठने का पूर्ण प्रयास करता है। अवस्था 4 : अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : इस अवस्था में व्यक्ति सम्यदृष्टि में स्थिर हो जाता है। आत्मिक विकास की यह एक महत्त्वपूर्ण अवस्था है, क्योंकि इसमें स्पष्ट आभास मिलता है कि सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र का कम-से-कम बीजारोपण हो चुका है, और इस बात की हर संभावना रहती है कि व्यक्ति अब सत्य एवं आचरण के अपने सिद्धान्त को व्यवहार में उतारेगा । इस अवस्था में यद्यपि सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाती है, फिर भी व्यक्ति अपने इंद्रियों के बारे में असंयत रहता है। इस अवस्था में आत्मसंयम के अभाव का कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि तीन प्रकार के कर्मों में से केवल एक पर विजय प्राप्त करके मिली हुई होती है। ये तीन प्रकार हैं : औपशमिक, क्षायोपशमिक, और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । जब तक इन तीनों पर विजय नहीं प्राप्त की जाती, तब तक आत्मसंयम संभव नहीं, और जब तक आत्मसंयम नहीं होता, तब तक आदमी आगे की अवस्था में नहीं पहुंच पाता । अवस्थाएं 5, 6 व 7: देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान, प्रमत्त संगत गुणस्थान और अप्रमत्त संगत गुणस्थान : ये अवस्थाएं व्यक्ति की इंद्रिय विषयों को वश में करने की इच्छाशक्ति तथा इन्द्रियों द्वारा व्यक्ति को सतत नीने मिराने के प्रयास के बीच के द्वन्द्व की द्योतक हैं। अतः स्वाभाविक है कि सफलता शनै:शनैः ही मिलती है। प्रथम अवस्था में केवल आंशिक सफलता मिलती है और आत्म चेतना प्राप्त होती है। व्यक्ति यद्यपि बड़ी लगन से प्रयास करता है, परन्तु

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