Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 177
________________ अणुव्रत आंदोलन 175 को "अहिंसा का एक रूम माना गया है, जिसमें दूसरों से वस्तुओं की अपेक्षा नहीं रखी जाती।" आचार्य स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "सामाजिक नियंत्रण परिग्रह पर तो रोक लगा सकते हैं, परन्तु मनुष्य की तृष्णाबों पर नहीं। इस बत का अर्थ है तृष्णा पर नियंत्रण प्राप्त करके परिग्रह पर नियंत्रण प्राप्त करना।" यह स्पष्ट है कि अणुव्रत आंदोलन अहिंसा तथा अपरिग्रह के सिवान्तों को अन्य मूल्यों की पुनस्थापना तथा समाज के पुननिर्माण के लिए मूलाधार मानता है। इस आधुनिक संसार में भी आत्म-विश्लेषण तथा आत्मशुद्धि पर बल देते हए भाचार्य लिखते हैं : “यह सच है कि मनुष्य की बाह्य शक्तियां कई गुना बढ़ी हैं, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि उसकी आन्तरिक शक्ति काफी घटी है। जैसे-जैसे मन की आन्तरिक स्थितियां कलुषित होती जाती है, वैसे-वैसे सामाजिक परिस्थितियां जटिल होती जाती हैं। रोगों के मूल अन्तर्मन के विकृत होते मुणों में निहित हैं। मनुष्य बाहरी चमक-दमक से चकाचौंध हो गया है। उसे इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिल रहा है कि वर्तमान युग विकास का यग है या अवनति का". किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि, पांचों प्रतों का भावना-पूर्वक पालन करने से ही आंदोलन के उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। ___अत: बिना किसी विरोधाभास के हम कह सकते हैं कि, वर्तमान काल के दुराचारों के निवारक के रूप में अणुव्रत आंदोलन का महत्त्व इस अर्थ में है कि यह बटली परिस्थितियों में उपयक्त परिवर्तन के साथ पांच वीके जैन दर्शन के सारतत्त्व का उपाय बताता है। और इसकी शांति एवं एकता की योजना भी महत्त्व की है। इस योजना के अनुसार, मनुष्य में सामाजिक एकता की अभिवृद्धि के लिए जो अमित क्षमताएं होती हैं, वे आंतरिक एकता के विकास तथा आत्मोन्नति से ही फलित हो सकती हैं। 7. वही, पृ. 21 8. वह 9. वही, पृ. 29

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