Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 171
________________ गुणस्थान सिद्धान्त अबस्था 13 : संयोग केवली गुणस्थान : पिछली अवस्था के अंतिम दौर में जीव चार बाधक कर्मों1- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय तथा मोहनीय कर्मों से पूर्णतः मुक्त हो जाता है। इस अवस्था में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। लेकिन शरीर, मन और वाक् की क्रियाएं चालू रहती हैं । जीव अघाति कम आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय कर्मों से अभी मुक्त नहीं होता। जब आयु कर्म क्षीण हो जाते हैं, तो अन्य कर्म भी लुप्त हो जाते है। आगे की अवस्था की शुरूआत के पहले सभी क्रियाएं रुक जाती हैं। 169 अवस्था 14 : अयोगी केवलो गुणस्थान : यह पूर्ण मुक्ति की अवस्था है । इस अवस्था में व्यक्ति की सभी अशुद्धताएं नष्ट हो जाती हैं और उसकी चेतना परम शुद्ध अवस्था को प्राप्त होती है। यह सम्यग्दष्टि, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यarta की प्राप्ति की चरमावस्था है । व्यक्ति को अपने अस्तित्व का पूर्ण ज्ञान हो जाता है । यह गतिहीन अवस्था स्वल्पकाल की होती है। इस अवस्था के अन्त में परम मोक्ष प्राप्त होता है ।

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