Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 109
________________ जैन दर्शन 104 वह इसके परिणामों से बच नहीं सकता। उसका पतन होता है और उसे मानव मे नीचे के स्तर में ढकेल दिया जाता है। एक और तथ्य जिससे हमें जैन सिद्धान्त को सही तौर से समझने में सहायता मिलती है, यह है कि, जब भी हम मनुष्य तथा चरमगति प्राप्त करने के उसके प्रयासों पर विचार करते हैं, तो हम मुख्यत: चेतनता के बारे में विचार करते हैं। आध्यात्मिक विकास एक अचेतन नहीं, बल्कि चेतन प्रक्रिया है। चूंकि मनुष्य के इस पक्ष के बारे में नीतिशास्त्र में विचार किया जाता है, इसलिए हम अकसर भूल जाते हैं कि सचेतनता केवल मनुष्य प्राणी की ही विशेषता नहीं है, यद्यपि आत्म-चेतनता संभवतः है। जैन परम्परा मनुष्य की आत्मचेतना पर भले ही विशेष बल देती हो, परन्तु इसकी दृढ़ मान्यता है कि चेतनता में किमी प्रकार की रुकावट नहीं आती, फिर चाहे यह वनस्पति के स्तर से पशु स्तर में पहुंचे या पशु स्तर से मानव या अति-मानव स्तर में पहुंचे। इसी अर्थ में जैन दर्शन में दो प्रमुख सत्ताओं-जीव तथा अजीव यानी चेतन तथा अचेतन को स्वीकार किया गया है। चूंकि नीतिशास्त्र में मानव की क्षमताओं तथा प्रवृत्तियों के बारे में विचार किया जाता है, इसलिए प्रतीत होता है कि आदमी चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, उसका पतन नहीं हो सकता। परन्तु जैन दार्शनिकों की चेतनता सम्बन्धी मान्यता से प्रभावित होकर हम विश्व में व्याप्त चेतन सत्ता पर विचार करते हैं और इसके विकास की न केवल मानवीय स्तर से बल्कि इसके 'प्रथम अस्तित्व में आने के समय से खोज करते हैं । चेतनता के बारे में इस प्रकार का समग्र दृष्टिकोण अपनाने से हम देखते हैं कि, मानवीय उत्तरदायित्व पर कम बल देने की बजाय, इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि मनुष्य को अपने विकास के स्तर के योग्य जीवन बिताना चाहिए, उसे देखना चाहिए कि बिना पतन के उसका स्तर बना रहता है और फिर उसे चेतनता के उच्च स्तर की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ___ जैन दर्शन की समग्र चेतनता सम्बन्धी इस महत्त्वपूर्ण मान्यता के बारे में उत्तराध्ययन-सूत्र में एक रोचक उदाहरण मिलता है। उदाहरण इस प्रकार है : तीन व्यापारी अपनी-अपनी पूंजी लेकर किसी दूसरे शहर में व्यापार करने गये। एक व्यापारी को काफी लाभ हुआ। दूसरा व्यापारी अपनी मूल पूंजी लेकर लौटा, उसे न लाभ हुआ न हानि। तीसरा व्यापारी अपनी पूंजी खोकर लौटा। इस उदाहरण में पूंजी मानव जीवन की बोतक है, लाभ स्वर्गीय सुख का घोतक है और हानि का अर्थ है पशुयोनि में पतन या नारकीय यातनाएं। 9. VII. 14-15

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