Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 139
________________ नयवाद 135 अस्वीकार करने का अर्थ होगा घट और पट जैसे असमानार्थी शब्दों के बीच भी अभेद स्वीकार करना । एक जैन पण्डित के मतानुसार, इस नय की सत्यता जैन भाषा दर्शन के दो सिद्धान्तों पर आधारित है। प्रथम सिदान्त यह है कि जो कुछ जानने योग्य है, उसे व्यक्त किया जा सकता है। अर्थात, वस्तु-जगत् का ज्ञान शब्दों के माध्यम के बिना संभव नहीं। दूसरा सिद्धान्त यह है कि, तत्त्वत: एक शब्द का एक ही अर्थ, और एक अर्थ के लिए एक ही शब्द हो सकता है। इस प्रकार, कई शब्द, जिन्हें सुविधा के लिए हम एक ही अर्थ के द्योतक मान लेते हैं, वस्तुत: उतने ही अर्थ रखते हैं जितने कि वे शब्द होते हैं। अर्थात्, यह सिदान्त समानार्थी शब्दों को स्वीकार नहीं करता, बल्कि अर्थ और इसके शब्द के बीच में एक स्पष्ट सम्बन्ध स्थापित करता है (वाव्यवाचकनियम)।" एवम्भूत नय __ यह नय व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या पर आधारित है। इस व्युत्पत्तिमूलक विधि में हम उस मूल पर विचार करते हैं जिससे शब्द बनते हैं। एवम्भूत नय शब्दोत्पत्ति पर आधारित उसी समय के एक पर्याय पर विचार करता है। एवम्भूत शब्द का अर्थ है : शब्द और अर्थ की दृष्टि से पूर्णतः सत्य। पहले दिये गये एक उदाहरण में, किसी व्यक्ति को हम तभी पुरन्दर कह सकते हैं जब वह वास्तव में शत्रु ओं का विनाश करता होता है। इसी प्रकार, किसी व्यक्ति को शक तभी कहा जायगा, जब वह वास्तव में अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा हो। ऊपर जिन नयों का विवेचन किया गया है, उनमें से प्रत्येक के सौ उपभेद माने गये हैं। अतः कुल मिलाकर सात सौ नय है। नयवाद के बारे में हमें दो अन्य मत भी देखने को मिलते हैं। एक मत छह नयों को स्वीकार करता है और दूसरा मत केवल पांच नयों को। प्रथम मत मंगम नय के अलावा शेष छह नयों को स्वीकार करता है, और दूसरा मत सममित और एवम्भूत नयों का समावेश शब नय में करता है। 5. वही, पृ. 322-23

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