Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 161
________________ नैतिक तस्व 159 भावसंबर और द्रव्यसंबर। सर्वप्रथम कर्मालव की ग्रहणशीलता को रोका जाता है। इसे भावसंबर कहते हैं। कर्मासन का जो मूल कारण है, वही नहीं रहेगा तो कर्मास्रव भी नहीं होगा। कर्मानव के रुक जाने की इस स्थिति को द्रव्यसंवर कहते हैं । संबर के लिए सम्यक् ज्ञान अत्यावश्यक है। यहां सम्यक् ज्ञान का अर्थ ऐसे ज्ञान से है जिससे जीव और अजीव की प्रकृतियां स्पष्ट हो जाती हैं। जब तक सम्यक् ज्ञान का उदय नहीं होता, तब तक जीव की शुद्ध चेतना की अन्तरस्थ प्रकृति को पहचानना संभव नहीं है। जीव के साथ जुड़े हुए विभिन्न कषाय तथा मोह वस्तुतः इसके आभ्यन्तर गुण नहीं हैं। यद्यपि हम इन्हें आत्मा की प्रकृति के आवश्यक अंग मानते हैं, ये वस्तुतः आकस्मिक ही होते हैं। इसलिए आत्मा को किसी प्रकार की क्षति पहुंचा ये बिना इनको हटाया जा सकता है। इसी प्रकार, आत्मा के साथ जुड़े हुए और भी कई प्रकार के कर्म हैं जो आत्मा की प्रकृति को समझने के लिए उतने महत्त्व के नहीं हैं जितना कि उन्हें समझा जाता है । संक्षेप में, सम्यक् ज्ञान न होने से चीजों (जीव और अजीव ) के विभेद को हम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। इस विभेद का जैसे ही ज्ञान होता है, मोह में फंसी हुई आत्मा मुक्त हो जाती है, और यह अपनी प्रकृति को ठीक से पहचानने लगती है । इस 'आत्मबोध' के परिणामस्वरूप अज्ञान से जनित विभिन्न मनोदशाएं क्षीण हो जाती हैं। यही भावसंबर है, और यह द्रव्यसंवर के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। मनोदशाओं के अभाव के कारण कर्मास्रव पूर्णतः रुक जाता है। संग्रह में सात प्रकार के संवर बतलाये गये हैं: व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र । तत्वार्थ सूत्र में व्रत के स्थान पर तप को रखा गया है 110 निर्जरा : कर्म के क्षय की दो अवस्थाएं मानी गयी हैं । प्रथम अवस्था में आत्मा में रद्दोबदल होने से कर्मालव आंशिक रूप से रुक जाता है। यह भावनिर्जरा है । कर्मास्रव के पूर्ण रूप रुक जाने की आगे की अवस्था द्रव्यनिर्जरा है । तत्त्वतः इस स्थिति में आत्मा सम्यक् ज्ञानमय रहती है, इसलिए (कर्म के उपभोग के कारण) उसके अनुभव भले ही पूर्व -सम्यग्ज्ञान की अवस्था के रहे, परन्तु इन अनुभवों के प्रति जो रुख है, उसमें हम स्पष्ट परिवर्तन देखते हैं। इस भाव-परिवर्तन से कर्म का क्षय करने में आसानी होती है। 10. बही, IX. 3

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