Book Title: Jain Darshan ki Ruprekha
Author(s): S Gopalan, Gunakar Mule
Publisher: Waili Eastern Ltd Delhi

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Page 149
________________ नैतिक नियम 147 प्रति दयाभाव रखता है, यदि अकस्मात् किसी प्राणी को चोट भी पहुंचा दे तो उसे पाप नहीं लगेगा । "" इस प्रकार, अहिंसा के पालन के लिए मन और शरीर के बीच सहयोग आवश्यक समझा गया है। इसके साथ हार्दिक प्रेम की सम्यक् भाषा भी चाहिए । इस प्रकार, न तो हिसा का विचार होता है न भाषा, जिससे पता चलता है कि हिंसा के लिए कोई उकसा नहीं रहा है। अतः अहिंसा के सिद्धान्त का अर्थ हैविचार, शब्द तथा कार्य की शुद्धता, जो जागतिक प्रेम और सभी प्राणियों के प्रति करुणा रखने से प्राप्त होती है—फिर वे प्राणी विकासक्रम के कितने भी निम्न स्तर के क्यों न हो। जैनों के अहिंसा सम्बन्धी मत को सही रूप में समझाते हुए ईलियट कहते हैं : ..."अहिंसा की आकर्षक धारणा, जैसा कि यूरोपवासी कल्पना करते हैं, दादा-दादी को खा जाने के भय पर आधारित नहीं है, बल्कि इस मानवीय एवं बौद्धिक भावना पर आधारित है कि सभी जीवन एक है, और जो व्यक्ति जानवरों को खाते हैं, वे उन जानवरों से श्रेष्ठ नहीं है जो दूसरे जानवरों को खाते हैं।" अहिंसा के पालन में गृहस्थ को कुछ ढील दी गयी है । परन्तु मुनि को अहिंसा का पालन बड़ी कठोरता से करना होता है। उदाहरणार्थ, वनस्पति में जो एकेन्द्रिय जीव पाये जाते हैं, उन्हें मारने की मुनि को छूट नहीं है । परन्तु एकेन्द्रिय जीव को मारने की गृहस्थ को अनुमति है, क्योंकि यदि वह ऐमे जीवों को नहीं मारता है तो कृषि का नुकसान होगा और परिणामतः समाज को अनाज-जैसी आवश्यक चीज नहीं मिलेगी। इसलिए कहा गया है कि गृहस्थ को केवल दो इन्द्रियों, तीन इन्द्रियों, चार इन्द्रियों तथा पंचेन्द्रियों वाले जीवों के मामले में ही अहिंसा का पालन करना चाहिए। मुनि के लिए जो कठोर नियम हैं उन्हें महाव्रत कहते हैं और गृहस्थ के लिए जो सामान्य नियम हैं उन्हें अणुव्रत कहते हैं । जैन बौद्धों की इस बात के लिए बड़ी आलोचना करते थे कि, वे मांस खाने की अनुमति इसलिए देते हैं कि जानवरों की हत्या उन्होंने नहीं बल्कि कसाई ने की है। जैनमत यह है कि यदि मांस खानेवाले ही न हों, तो कसाई पशुहत्या का पापकर्म नहीं करेंगे; इसलिए मांस खानेवाले ही (यद्यपि अप्रत्यक्ष रूप से) हत्या के लिए जिम्मेवार हैं । जैन उन हिन्दुओं की भी कटु आलोचना करते थे जो धर्म के नाम पर यज्ञ में पशुओं की बलि देते थे । 6. 'प्रवचनसार,' III. 17 7. पूर्वी०, खण्ड प्रथम, पु० 1 vi

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