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जैन दर्शन
भागे हैं और इसे उन्होंने असंगति की सीमा तक पहुंचा दिया है। इस संदर्भ में उन्होंने बम्बई के रोगी जानवरों के अस्पताल का उल्लेख किया है। श्रीमती स्टीवेन्सन का मत है कि जीवन के लिए अहिंसा का नियम वैज्ञानिक दृष्टि से असंभव है, क्योंकि यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। यहां यह जो दो विचार व्यक्त किये गये हैं. उनके पीछे यह कारण है कि अनेक विद्वानों को इस धारणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी नहीं है । देवताओं को खुश करने के नाम पर यज्ञों में निरीह पशुओं की जो हत्या होती थी, उसके प्रति जैनों का जो विवादात्मक दृष्टिकोण रहा है, उससे सभी परिचित हैं, इसलिए उसके विश्लेषण की यहां आवश्यकता नहीं है। उस जमाने में प्राणियों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार के प्रति व्यापक रूप से आवाजें उठायी जा रही थीं। जीव. हत्या के प्रति जैनों (और बौद्धों) ने जो आवाजें उठायी हैं, उसका प्रभाव भारतीय नीतिशास्त्र पर भी पड़ा है। व्यवहार में अहिंसा का पालन महात्मा गांधी ने भी किया है। गांधीजी ने स्वयं कहा है कि उन्हें जैन धर्म के तथा संसार के अन्य धर्मों के ग्रन्थों से बड़ा लाभ हुआ है।
अहिंसा तथा ( अवध ) सामान्यतः 'कार्य' माने जाते हैं ताकि मनुष्य यदि इन निषिद्ध कार्यों को नहीं करता, तो उसे पापों से मुक्ति मिल जा सकती है। परन्तु न केवल उसे ऐसे कार्य से बचना होता है बल्कि उसके मनोभाव भी शुद्ध होने चाहिए। चूंकि किसी भी कार्य के पीछे मनोभाव एवं इच्छा निहित रहती है, इसलिए केवल कार्य से बचने का अर्थ यह नहीं होगा कि कोई मनोभाव भी नही था। संभव है कि मनोभाव वहां विद्यमान रहा हो, परन्तु बड़ी कठिनाई से ही कार्य को टाल दिया गया हो । इसीलिए जैन दार्शनिक इस बात पर जोर देते हैं कि मन दुष्ट मनोभावों यानी हिंसावृत्ति से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए। तत्त्वार्य-सूत्र में हम पढ़ते हैं कि हिंसा का अर्थ लापरवाही या उपेक्षा से प्राणियों को चोट या पीड़ा पहुंचाना है, और यह सब घमंड, दुराग्रह, आसक्ति तथा घृणा जैसी वृत्तियों के कारण होता है। अतः यह स्पष्ट है कि भौतिक क्रिया को मानसिक क्रिया से अलग नहीं माना गया था। एक अन्य जैन ग्रंथ में मन का महत्त्व इस प्रकार बताया गया है : "प्रमाद से पाप घटित होता है, और किसी प्राणी को वस्तुतः पीड़ा भी न पहुंची हो तो भी जीवात्मा दूषित होती है। इसके विपरीत, सावधान तथा धार्मिक व्यक्ति, जो विषयासक्त नहीं है और पशुओं के
2. टी.जी. कालपटगी, जैन व्यू ऑफ लाइफ' (शोलापुर : जैन संस्कृति संरक्षक संघ,* ____1969), पृ. 163 में उपत 3. वही, पृ. 287 4. देखिये, व लेटर काम गांधीजी,' मारनं रिव्यू, मक्तू. 1916 5. 'तत्वाव-मूख', VII.8