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बुतज्ञान
हम देखते हैं कि इस मत की दो प्रकार से आलोचना की गयी है। एक यह है कि, यदि मति से शब्दों को एकदम अलग कर दिया जाय तो फिर इसमें ईहा, अपाम तथा धारणा के लिए कोई स्थान नहीं रह जायगा, क्योंकि इनका विषय बोधगम्य चिन्तन है, और शब्द-रहित बोधगम्य चिन्तन महज एक कल्पना है। यदि ऐसा होता है तो फिर मानव और पशु में कोई भेद ही नहीं रह जायगा। दूसरी आलीचना यह है इससे निर्धार्य बोध संभव न होगा और हमें अनिर्धार्य बोध के स्तर पर ही रुक जाना होगा ।
मति से इस अर्थ में भिन्न है कि इसका ज्ञान केवल ज्ञाता को ही हो सकता है । यह उस मूक आदमी के बोध- जैसा है जो अनुभव तो करता है, किन्तु इसे दूसरों के सम्मुख व्यक्त नहीं कर सकता । श्रुत की प्रमुख विशेषता यह है कि यह 'बहता' है और अपने को ज्ञाता तक पहुंचाता है । यह उस व्यक्ति की तरह है जो बोल सकता है, जो अपने अनुभवों को बाह्य संकेतों से व्यक्त कर सकता है। इस मत की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि मति और श्रत दोनों ही ज्ञान के स्वरूप हैं, इसलिए स्वयं को दूसरे के सम्मुख व्यक्त नहीं कर सकते । यदि, केवल तर्क के लिए, यह मान भी लिया जाय कि ज्ञान दूसरों के लिए प्रकट करना संभव है, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह एक को प्रकट किया जा सकता है और दूसरों को नहीं। क्योंकि एक स्थिति में प्रकटीकरण शब्दों के रूप होता है और दूसरी स्थिति में हावभाव के रूप में ।
दूसरा मत, जिसमें मति और श्रुत के भेद को नहीं माना गया है, शुद्ध तर्क पर आधारित है। कहा गया है कि मति में भाषा निर्धारण की कोई भूमिका अदा नहीं करती, और मति के लिए पूर्वज्ञान भी अल्प महत्व का ही है । परन्तु श्रुतज्ञान शब्दों में रहता है। चूंकि हर प्रकार का बोध एक प्रकार का संभवनीय श्रत ही है, इसलिए कहा जा सकता है कि बोध शब्दमय तो होता है, परन्तु यह पूर्वज्ञान से मुक्त होता है। लेकिन यह एक असंभव बात है, और इसलिए मति तथा श्रत में कोई वास्तविक भेद नहीं हैं । इस कठिनाई से बचने के लिए भेद सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि जब शब्दों का अभाव रहता है तो वह मति है, और जब शब्दों का अस्तित्व रहता है तो मति श्रुत में बदल जाती है । परन्तु इस मत के आलोचकों का कहना है कि यह भेद बहुत ही कृत्रिम है और इसलिए यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शब्दों से ज्ञान को एक नया स्तर मिलता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मति ही पर्याप्त है और श्रुत निरर्थक है । या यह भी कहा जा सकता है कि श्रुत मति का ही एक प्रकार हैं । ऐसी स्थिति में श्रुत पर स्वतंत्र विचार करना या इसे एक स्वतंत्र भेद मानना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता । अतः श्रुत और मति में कोई भेद नहीं है ।