________________
श्रुतज्ञान
61
कुन्दकुन्दाचार्य ने तज्ञान को चार भागों में बांटा है: सन्धि, भावना, उपयोग और नय । इन्हें चार भागों में बांटने की बजाय भट्टाचार्य बुझाते हैं कि "इन्हें स्वतंत्र एवं एक-दूसरे से भिन्न धर्मग्रन्थों के ज्ञान-प्रकार मानने की बजाय एक घटना की विकासशील व्याख्या के चार कदमों का क्रम मानना ही उपयुक्त होगा । 21
यदि
तज्ञान का पूर्ण रूप से उपयोग करना है और यदि इस संग्रहीत शाम के उपयोग से आदमी अपने आसपास की घटनाओं को समझने में समर्थ बनता है, तो यह बात समझने योग्य है कि यह चार कदम किस प्रकार उस आदमी की विकासशील बोध क्षमता के द्योतक हैं ।
ग्ध व्याख्या का स्तर है । इसमें एक ऐसी घटना का स्मरण किया जाता है जिसका सम्बन्ध विद्यमान घटना से होता है । यदि क्ष तथा य दो घटनाएं हैं, और यह एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, तो घटना क्ष के स्वभाव पर विचार करने नयी घटना का स्वभाव आसानी से मालूम हो जाता है । भावना ऐसा स्तर है जिसमें ज्ञात घटना (क्ष) के स्वभाव का पुनर्विचार होता है, ताकि नयी घटना (य), जो कि पुरानी घटना से सम्बन्धित होती हैं, ठीक से समझी जा सके ।
उद्योग ऐसा स्तर है जिसमें नयी घटना का समुचित मूल्यांकन होता है। पूर्व-परिचित घटना के प्रकाश में विचार एवं समाकलन करने से ऐसा संभव होता है ।
श्र ुतज्ञान के चौथे स्तर (नय) और मतिज्ञात के चौथे स्तर ( धारणा ) के बीच एक बड़ा रोचक साम्य दरशया गया है । धारणा, जिसके अन्तर्गत धर्मवचन को मन के भीतर पकड़कर रखने की क्रिया सम्पन्न होती है, इन्द्रियजन्य मतिज्ञान की एक प्रकार से चरम सीमा है । इसी प्रकार नय, जिसमें वस्तु के गुण-विशेष को महत्त्व देकर उसे समझा जाता है, श्र ुतज्ञान की चरम सीमा है । कारण यह है कि नय में किसी घटना की व्याख्या करने के लिए संगृहीत समस्त ज्ञान का उपयोग नहीं किया जाता, बल्कि किसी वस्तु के विभिन्न पहलुओं तथा उसके विशिष्ट गुणों का अवलोकन करके उसे समझा जाता है ।"
जैनों के श्र तज्ञान सिद्धान्त की यह एक विशेषता है कि मति को श्रुत के पहले माना गया है । " कोई भी अन्य भारतीय दर्शन शब्द प्रमाण से जन्य ज्ञान की चर्चा करते हुए यह नहीं कहता कि इन्द्रियजन्य ज्ञान शब्दज्ञान अथवा धर्म
10. 'पंचास्तिकाय, समयसार, 43
11. gato, q. 301
12. वही, पृ० 302-303
13. 'तस्वार्थ सूत्र', I. 20