Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 12
________________ १० / जैन दर्शन के मूल सूत्र सकता है। वे दो वर्ष तक घर में रहते हुए घर से दूर रहे। इस अवधि में उन्होंने विदेह-साधना की। वे परिवार में रहकर भी एकान्त में रहे। जिसके शरीर में आसक्ति नहीं रहती, वह समुदाय में रहकर भी अकेला रह सकता है।। उन्होंने अस्वाद का विशिष्ट अभ्यास किया। जिसे देहातीत अवस्था में रस का अनुभव हो जाता है, उसे अस्वाद की उपलब्धि करने में कठिनाई नहीं होती। वे मौन और ध्यान में लीन रहे। जिसके लिए बाह्य जगत में अभिव्यक्त होने का प्रयोजन शेष नहीं रहता, उसकी वाणी मौन हो जाती है, विकल्प शून्य हो जाते हैं। इन दो वर्षों की साधना से उनके श्रामण्य की पृष्ठभूमि और अधिक सुदृढ़ हो गई। गुरुजनों के अनुरोध की अवधि पूर्ण हुई। उन्होंने अनुभव किया-घर में रहते हुए घर से दूर रहना सम्भव हो सकता है, पर यह सामुदायिक मार्ग नहीं है। यह कुछ लोगों का मार्ग है। सामुदायिक मार्ग यह हो सकता है-घर की वासना को छोड़ना और साथ-साथ घर को भी छोड़ देना। सबके कल्याण की बात सोचने वाला सामुदायिक मार्ग पर चलता है। महावीर ने घर छोड़ने के लिए परिवार की अनुमति प्राप्त कर ली और वे वहां से अभिनिष्क्रमण कर क्षत्रियकुण्डग्राम के बाहर उद्यान में गए। जनता के समक्ष उन्होंने स्वयं श्रमण दीक्षा स्वीकार की, आजीवन समता के पथ पर चल पड़े। साधना के बारह वर्ष . भगवान महावीर की साधना का पहला चरण इस संकल्प के साथ उठा-आज से मैं विदेह रहूंगा, देह की सुरक्षा नहीं करूंगा। सर्दी-गर्मी के परीषहों को झेलूंगा। जो भी कष्ट आए, उसे सहन करूंगा। रोग की चिकित्सा नहीं कराऊंगा। भूख और प्यास की बाधा से अभिभूत नहीं होऊंगा। नींद पर विजय प्राप्त करूंगा। भगवान महावीर ने अनुभव किया-अभय के सधे बिना समता नहीं सध सकती और विदेह के सधे बिना अभय नहीं सध सकता। मानवीय दुर्बलताओं का मूल स्रोत भय है। मानव की महान शक्ति के विकास का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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