Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 11
________________ अपनी बात सप्तमंगी और नय जैसे कुछ चुने हुए विषयोंपर प्रकाश डाला गया है। शेष पूरी पुस्तक तत्त्वज्ञानकी दृष्टि से लिखी गई है। इसलिए एक ऐसी मौलिक कृतिकी आवश्यकता तो थी ही, जिसमें जैनदर्शनके सभी दार्शनिक मन्तव्योंका उहापोहके साथ विचार किया गया हो। हम समझते हैं कि इस सर्वांगपूर्ण कृति द्वारा उस आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है । अतएव इस प्रयत्नके लिए हम श्रीयुक्त पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका जितना आभार मानें, थोड़ा है। प्रस्तुत पुस्तक पर आय वक्तव्य राजकीय संस्कृत महाविद्यालय (ग० सं० कालेज ) के भूतपूर्व प्रिंसिपल श्रीमान् डॉ. मंगलदेवजी शास्त्री, एम० ए०, डी० फिल० ने लिखा है। भारतीय विचारधाराका प्रतिनिधित्व करने वाले जो अधिकारी विद्वान् हैं उनमें आपकी प्रमुख रूपसे परिगणना की जाती है। इससे न केवल प्रस्तुत पुस्तककी उपयोगिता बढ़ जाती है, अपितु जैनदर्शनका भारतीय विचारधारामें क्या स्थान है, इसके निश्चय करनेमें बड़ी सहायता मिलती है। इस सेवाके लिए हम उनके भी अत्यन्त अभारी हैं। __ यहाँ हमें सर्व प्रथम गुरुवर्य पूज्य श्री १०५ क्षु० गणेशप्रसादजी वर्णीका स्मरण कर लेना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि ग्रन्थमालाकी जो भी प्रगति हो रही है वह सब उनके पुनीत शुभाशीर्वादका ही फल है। तथा और भी ऐसे अनेक उदार महानुभाव हैं जिनसे हमें इस कार्यको प्रगति देने में सक्रिय सहायता मिलती रहती है। उनमें संस्थाके उपाध्यक्ष श्रीमान् पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री मुख्य हैं । पण्डितजी संस्थाकी प्रगति और कार्यविधिकी ओर पूरा ध्यान रखते हैं और आनेवाली समस्याओंको सुलझाते रहते हैं । अतएव हम उन सबके विशेष अभारी हैं। श्री ग० वर्णी जैन ग्रन्थमालाकी अन्य प्रवृत्तियोंमें जनसाहित्यके इतिहासका निर्माण कराना मुख्य कार्य है। अबतक इस दिशामें बहुत

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