________________
जैनदर्शन वेदोंका विशेषतः ऋग्वेदका काल अति प्राचीन है, इसमें सन्देह नहीं । उसके नासदीय सदृश सूक्तों और मन्त्रोंमें उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधारा पाई जाती है। ऐसे युगके साथ, जब कि प्रकृतिके कार्य-निर्वाहक तत्तद्देवताओंकी स्तुति आदिके रूपमें अत्यन्त जटिल वैदिक कर्मकाण्ड ही आर्यजातिका परम ध्येय हो रहा था, उपर्युक्त उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधाराकी संगति बैठाना कुछ कठिन ही दिखलाई देता है। ऐसा हो सकता है कि उस दार्शनिक विचारधाराका आदि स्रोत वैदिकधारासे पृथक् या उससे पहिलेका ही हो।
ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यमें कापिल-सांख्य दर्शनके लिये स्पष्टतः अवैदिक कहा है।' इस कथनमें हमें तो कुछ ऐसी ध्वनि प्रतीत होती है कि उसकी परम्परा प्राग्वैदिक या वैदिकेतर हो सकती है। जो कुछ भी हो, ऋग्वेदसंहितामें जो उत्कृष्ट दार्शनिक विचार अंकित हैं, उनकी स्वयं परम्परा और भी प्राचीनतर होना ही चाहिये।
जैन दर्शनकी सारी दार्शनिक दृष्टि वैदिक दार्शनिक दृष्टिसे स्वतन्त्र ही नहीं, भिन्न भी है, इसमें किसीको सन्देह नहीं हो सकता । हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उपर्युक्त दार्शनिक धाराको हमने ऊपर जिस प्राग्वैदिक परम्परासे जोड़ा है, मूलतः जैन दर्शन भी उसीके स्वतन्त्र विकासको एक शाखा हो सकता है । उसकी सारी दृष्टिसे तथा उसके कुछ पुद्गल जैसे विशिष्ट पारिभाषिक शब्दोंसे इसी बातकी पुष्टि होती है । जैन दर्शनका विशेष महत्त्व :
परन्तु जैन दर्शनका अपना विशेष महत्त्व उसकी प्राचीन परम्पराको छोड़कर अन्य महत्त्वके आधारों पर भी है। किसी भी तात्त्विक विमर्शका विशेषतः दार्शनिक विचारका महत्त्व इस बातमें होना चाहिये कि वह १. 'न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातु शक्यम्' ।'
-ब्र० सू० शां० भा० २।१।१।