________________
प्राक्कथन
१३ प्रकृत वास्तविक समस्याओं पर वस्तुतः उन्हींकी दृष्टिसे किसी प्रकारके पूर्वग्रहके बिना विचार करे। भारतीय अन्य दर्शनोंमें शब्दप्रमाणका जो प्रामुख्य है वह एक प्रकारसे उनके महत्त्वको कुछ कम ही कर देता है । उन दर्शनोंमें ऐसा प्रतीत होता है कि विचारधाराकी स्थूल रूपरेखाका अङ्कन तो शब्द-प्रमाण कर देता है और तत्तदर्शन केवल उसमें अपने-अपने रङ्गोंको हो भरना चाहते हैं। इसके विपरीत जैनदर्शनमें ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बिलकुल साफ स्लेट ( Tabula Rasa ) पर लिखना शुरू करता है । विशुद्ध दार्शनिक दृष्टिमें इस बातका बड़ा महत्त्व है । किसी भी व्यक्तिमें दार्शनिक दृष्टिके विकासके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह स्वतन्त्र विचारधाराकी भित्तिपर अपने विचारोंका निर्माण करे और परम्परा-निर्मित पूर्वग्रहोंसे अपनेको बचा सके। ____ उपर्युक्त दृष्टिसे इस दृष्टिमें मौलिक अन्तर है । पूर्वोक्त दृष्टिमें दार्शनिक दृष्टि शब्दप्रमाणके पीछे-पीछे चलती है, और जैन दृष्टिमें शब्दप्रमाणको दार्शनिक दृष्टिका अनुगामी होना पड़ता है । जैनदर्शन नास्तिक नहीं : ___ इसी प्रसङ्गमें भारतीय पर्शनके विपयमें एक परम्परागत मिथ्या भ्रमका उल्लेख करना भी हमें आवश्यक प्रतीत होता है । कुछ कालसे लोग ऐसा समझने लगे है कि भारतीय दर्शनको आस्तिक और नास्तिक नामसे दो शाखाएं है। तथाकथित 'वैदिक' दर्शनोंको आस्तिक दर्शन और जैन, बौद्ध जैसे दर्शनोंको 'नास्तिक दर्शन' कहा जाता है । वस्तुतः यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं, नितान्त मिथ्या भी है । आस्तिक
और नास्तिक शब्द "अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः” (पा० ४।४।३० ) इस पाणिनि सूत्रके अनुसार बने हैं । मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक ( जिसको हम दूसरे शब्दोंमें इन्द्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं)