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जैनदर्शन
है, इसका सामान्य विचार किया गया है । इसोंमें जैनदर्शनका युग-विभाजनकर उन-उन युगोंमें उसका क्रमिक विकास बताया है ।
२. द्वितीय प्रकरण-'विषय प्रवेश' में दर्शनको उद्भूति, दर्शनका वास्तविक अर्थ, भारतीय दर्शनोंका अन्तिम लक्ष्य, जैनदर्शनके मूल मुद्दे आदि शीर्षकोंसे इस ग्रन्थके विषय-प्रवेशका सिलसिला जमाया गया है ।
३. तृतीय-'जैनदर्शनकी देन' प्रकरणमें जैनदर्शनकी महत्त्वपूर्ण विरासत-अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद भाषा, अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप, धर्मज्ञतासर्वज्ञताविवेक, पुरुषप्रमाण्य, निरीश्वरवाद, कर्मणा वर्णव्यवस्था अनुभवकी प्रमाणता और साध्यकी तरह साधनको पवित्रताका आग्रह आदिका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया गया है।
४. चतुर्थ-'लोक व्यवस्था' प्रकरणमें इस विश्वकी व्यवस्था जिस उत्पादादादि त्रयात्मक परिणामी स्वभावके कारण स्वयमेव है उस परिणामवादका, सत्के स्वरूपका और निमित्त उपादान आदिका विवेचन है । साथ ही विश्वकी व्यवस्थाके सम्वन्धमें जो कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पुरुषवाद, कर्मवाद, भूतवाद, यदृच्छावाद और अव्याकृतवाद आदि प्रचलित थे, उनकी आलोचना करके उत्पादादित्रयात्मक परिणामवादका स्थापन किया गया है। आधुनिक भौतिकवाद, विरोधी समागम और द्वन्द्ववादकी तुलना और मोमांसा भी परिणामवादसे की गई है ।
५. पञ्चम–'पदार्थस्वरूप' प्रकरणमें पदार्थके त्रयात्मक स्वरूप, गुण और धर्मकी व्याख्या आदि करके सामान्यदिशेषात्मकत्वका समर्थन किया गया है।
६. छठे-'पट् द्रव्यविवेचन' प्रकरणमें जीवद्रव्यके विवेचनमें व्यापक आत्मवाद, अणुआत्मवाद, भूतचैतन्यवाद आदिको मीमांसा करके आत्माको कर्ता, भोक्ता, स्वदेहप्रमाण और परिणामी सिद्ध किया गया है । पुद्गल द्रव्यके विवेचनमें पुद्गलोंके अणु-स्कन्ध भेद, स्कन्धकी प्रक्रिया, शब्द, बन्ध आदिका पुद्गलपर्यायत्व आदि सिद्ध किया है । इसी तरह