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जैनदर्शन आवश्यकता, उपयोगिता और स्वरूप बताकर 'स्याद्वाद' के सम्बन्धमें महापंडित राहुल साकृत्यायन, सर राधाकृष्णन्, प्रो० बलदेवजी उपाध्याय, डॉ. देवराजजी, श्री हनुमन्तरावजी आदि आधुनिक दर्शन-लेखकोंके मतको आलोचना करके स्याद्वादके सम्बन्धमे प्राचीन आ० धर्मकीति, प्रज्ञाकर, कर्णकगोमि, शान्तरक्षित, अर्चट आदि बौद्धदार्शनिक, शंकराचार्य, भास्कराचार्य, नीलकण्ठाचार्य, रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, ब्योमशिवाचार्य आदि वैदिक तथा तत्त्वोपप्लववादी आदिके भ्रान्त मतोंकी विस्तृत समीक्षा की गई है। सप्तभङ्गीका स्वरूप, सकलादेश-विकलादेशकी रेखा तथा इस सम्बन्धमे आ० मलयगिरि आदिके मतोकी मोमासा करके स्याद्वादको जीवनोपयोगिता सिद्ध को है । इसीमे संशयादि दूषणोंका उद्धार करके वस्तुको भावाभावात्मक, नित्यानित्यात्मक, सदसदात्मक, एकानेकात्मक और भेदाभेदात्मक सिद्ध किया है।
११. ग्यारहवें-'जैनदर्शन और विश्वशान्ति' प्रकरणमे जैनदर्शनको अनेकान्तदृष्टि और समन्वयकी भावना, व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी स्वीकृति और सर्व समानाधिकारको भूमिपर सर्वोदयी समाजका निर्माण और विश्वशातिकी संभावनाका समर्थन किया है ।
१२. बारहवें-'जैनदार्शनिक साहित्य' प्रकरणमे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओके प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थोका शताब्दीवार नामोल्लेख करके एक सूची प्रस्तुत की गई है।
इस तरह इस ग्रन्थमे 'जैनदर्शन' के सभी अङ्गोपर समूल पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
अन्तमे मै उन सभी उपकारकोका आभार मानना अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनके सहयोगसे यह ग्रन्थ इस रूपमे प्रकाशमे आ गया है। सुप्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता गुरुवर्य श्री १०५ क्षुल्लक पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीका सहज स्नेह और आशीर्वाद इस जनको सदा प्राप्त रहा है।
भारतीय संस्कृतिके तटस्थ विवेचक डॉ० मङ्गलदेवजी शास्त्री पूर्व