Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 15
________________ प्रा क थ न मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुख और ऐन्द्रियक है । वह अपने निक जीवनमें अपनी साधारण आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए दृश्य जगत्; आपाततः प्रतीयमान स्वरूपसे ही सन्तुष्ट रहता है । जीवनमें कठिन रिस्थितियोंके आनेपर ही उसके मनमें समस्याओंका उदय होता है और 'ह जगत् के आपाततः प्रतीयमान रूपसे, जिसमें कि उसे कई प्रकारकी लझनें प्रतीत होती है, संतुष्ट न रहकर उसके वास्तविक स्वरूपके जाननेलिए और उसके द्वारा अपनी उलभतोंके समाधान के लिए प्रवृत्त होता । इसी तथ्यका प्राचीन ग्रन्थोंमें "पराचि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मन्यवैक्षद् आवृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् יון १ - कठोप० २।१।१ । स प्रकारके शब्दोंमें प्रायः वर्णन किया गया है । वास्तवमें दार्शनिक दृष्टिका यहीं सूत्रपात्र होता है । दार्शनिक दृष्टि और तात्त्विक दृष्टि दोनोंको समानार्थक समझना चाहिए । व्यक्तियोंके समान जातियोंके जीवनमे भी दार्शनिक दृष्टि सांस्कृतिक काकी एक विशेष अवस्थामे ही उद्भूत होती है । भारतीय संस्कृतिकी रम्पराको अति प्राचीनताका बड़ा भारी प्रमाण इसी बात मे है कि उसमें र्शनिक दृष्टिकी परम्परा अति प्राचीनकाल से ही दिखलाई देती है । स्तव में उसका प्रारम्भ कब हुआ, इसका काल निर्धारण करना अत्यन्त कठिन है ।

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