Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 14
________________ २) जैनदर्शन ___ग्रन्थमालाके पास यद्यपि आर्थिक साधन नहीं हैं, यह स्पष्ट है, फिर भी पूज्य वर्णीजीका, जिनकी वरद छाया आज हमें प्राप्त नहीं है, परोक्ष आशीर्वाद और उनके उपकारोंसे उपकृत समाजका बल उसे प्राप्त है। २८ दिसम्बर १६६५ में ग्रन्थमाला-प्रबन्ध-समितिकी वाराणसी-बैठकमें इस ग्रन्थके प्रकाशनका प्रस्ताव रखा गया, जिसे समितिने सहर्षपारित किया। दारित्व आ जानेसे उसके प्रकाशनकी चिन्ता होना स्वभाविक था। सुयोगसे हमें ला० राजकृष्णजी जैन दिल्लीके पौत्रके विवाहमें जानेका सुअवसर मिला। हमें प्रसन्नता है कि लालाजीने हमारे संकेतपर तुरन्त इसकी १०० प्रतियोंके प्रकाशनमें ७००) तथा इसी ग्रन्थमालासे पहली बार प्रकाशित हो रही पं० जयचन्दजी छाबड़ा कृत द्रव्यसंग्रह-भाषा वचनिकाकी १०० प्रतियोंके प्रकाशनमें १०० कुल ८००) की उदार सहायता प्रदान की। ला० शान्तिलालजी जैन कागजी दिल्लीने भी इसको २५ प्रतियोंके लिए १५०) की सहायता की। उधर श्रीनीरजजी जैन सतना भी हमें ५० प्रतियोंके लिए स्वीकारता दे चुके थे। अतः इन सभी उदार महानुभावों और ग्रन्थमालाप्रेमियोंके सहयोग-बलपर हम जैन दर्शन का यह द्वितीय संस्करण निकालनेमें सक्षम हो सके हैं। इसका श्रेय ग्रन्थमाला-प्रबन्ध-समितिके सदस्यों और ग्रन्थमाला-प्रेमियोंके सहयोगको है। यह भी कम सुयोगको बात नहीं है कि प्रिय श्री बाबूलालजी जैन फागुल्लने स्वावलम्बी बननेको दृष्टिसे हालमें चालू किये अपने महावीर-प्रेसमें इसका शीघ्रताके साथ सुन्दर प्रकाशन किया, जिसके लिए हम उन्हें तथा प्रेसमें काम करनेवाले सभी लोगोंको धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते । आशा है इस द्वितीय संस्करणको भी सहृदय पाठक उसी तरह अपनायेंगे, जिस तरह वे प्रथम संस्करणको अपना चुके हैं। चमेलो-कुटोर, -दरबारीलाल कोठिया अस्सी, वाराणसी, ( एम० ए०, न्यायाचार्य, शास्त्राचार्य) २४ मार्च १९६६ मंत्रो, वर्णोग्रंथमाला

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