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दो शब्द
राहुल सांकृत्यायन के
तो उन्होंने मुझे
जब भारतीय ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित न्यायविनिश्चयविवरण और तत्त्वार्थवृत्तिकी प्रस्तावना में मैंने सुहृदर महापंडित 'स्याद्वाद' विषयक विचारोंकी आलोचना की, उलाहना दिया कि "क्यों नहीं आप स्याद्वादपर दो ग्रन्थ लिखते - एक गम्भीर और विद्वद्भोग्य और दूसरा स्याद्वाद- प्रवेशिका " । उनके इस उलाहनेने इस ग्रन्थके लिखनेका संकल्प कराया और उक्त दोनों प्रयोजनोंको साधनेके हेतु इस ग्रन्थका जन्म हुआ ।
ग्रन्थके लिखनेके संकल्पके बाद लिखनेसे लेकर प्रकाशन तककी इसकी विचित्र कथा है । उसमें न जाकर उन सब अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियोंके फलस्वरूप निर्मित अपनी इस कृतिको मूर्तरूपमे देखकर सन्तोषका अनुभव करता हूँ ।
जैन धर्म और दर्शनके सम्बन्ध में बहुत प्राचीन काल से ही विभिन्न साम्प्रदायिक और संकुचित सांस्कृतिक कारणोंसे एक प्रकारका उपेक्षाका भाव ही नहीं, उसे विपर्यास करके प्रचारित करनेकी प्रवृत्ति भी जानबूझकर चालू रही है । इसके लिये पुराकालमें जो भी प्रचार के साधन - ग्रन्थ, शास्त्रार्थ और रीति-रिवाज आदि थे, उन प्रत्येकका उपयोग किया गया। जहाँ तक विशुद्ध दार्शनिक मतभेदकी बात है, वहाँ तक दर्शनके क्षेत्र में दृष्टिकोणों का भेद होना स्वाभाविक है । पर जब वे ही मतभेद साम्प्रदायिक वृत्तियोंकी जड़में चले जाते है तब वे दर्शनको दूपित तो कर ही देते हैं, साथ ही स्वस्थ समाजके निर्माण में बाधक बन देशकी एकताको छिन्न-भिन्न कर विश्वशान्तिके विघातक हो जाते है । भारतीय दर्शनोंके विकासका इतिहास इस बातका पूरी तरह साक्षी है । दर्शन ऐसी