Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 8
________________ इसमें भारतीय समाजदर्शन के अधिकांश पहलुओं एवं समस्याओं का समावेश किया गया है। विद्वान् लेखक ने भारतीय चिन्तन के प्राचीन युग को वैदिक युग, औपनिषदिक युग एवं जैन बौद्ध युग में विभक्त कर सामाजिक चेतना के विकास का विवेचन प्रस्तुत किया है । स्वार्थ एवं परार्थ की अवधारणा में विरोध-दृष्टि पाश्चात्य नीतिशास्त्रीय चिन्तकों को परस्पर विरोधी दो वर्गों में विभक्त करती है। हान्स, नीत्से आदि स्वार्थ को मानव के लिए परम स्पृहणीय मानकर स्वार्थवाद की स्थापना करते हैं और इसे ही नीतिशास्त्र के श्रेष्ठ एवं समुचित सिद्धान्त होने का दावा करते हैं। इसके विपरीत मिल, वेन्यम आदि परार्थ को मानव के लिए अनुपेक्षणीय एवं अपरिहार्य मानकर परार्थवाद की स्थापना करते हैं और इसे नैतिकता के मूल्यांकन का उत्कृष्ट मानदण्ड मानते हैं । भारतीय चिन्तन धारा में स्वार्थ एवं पराये में विरोध न देखकर सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है । लेखक ने स्वहित बनाम लोकहित में बाह्य विरोध प्रदर्शन के साथ आन्तरिक सामञ्जस्य की पुष्टि बड़ी कुशलता के साथ की है। ___ भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तम्भ वर्णाश्रम व्यवस्था है। इसमें मुख्य रूप से वर्णव्यवस्था को वैदिक परम्परा की देन माना जाता है और यह भी मान्यता देखने को मिलती है कि श्रमण परम्परा का विकास इस वर्ण व्यवस्था की विरोधी प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है । किन्तु विद्वान् लेखक ने सप्रमाण यह प्रदर्शित किया है कि वर्ण व्यवस्था न केवल ब्राह्मण परम्परा में मान्य रही है अपितु समान रूप से यह श्रमण परम्परा में भी स्वीकृत रही है । अन्तर केवल इतना ही है कि जहां ब्राह्मण परम्परा में वर्ण के निर्धारण की कसौटी के रूप में जन्म एवं कर्म सम्बन्धी विवाद बहुत काल तक चलता रहा है वहाँ जैनाचार्यों एवं बौद्धाचार्यों ने निर्विवाद रूप से वर्ण निर्धारण की कसोटी के रूप में कर्म को स्वीकार कर लिया है। इसी संदर्भ में स्वधर्म के निर्धारण का प्रश्न भी अपनी जटिलता के साथ उपस्थित होता है। वर्ण व्यवस्था को अपरिवर्तनशील एवं स्थिर मानने वाली वैदिक परम्पग के लिए स्वधर्म की व्याख्या अत्यधिक सहज एवं सरल रूप में हो जाती है। वहाँ वर्ण के लिए विहित कर्मों को वर्णावलम्बी व्यक्ति का स्वधर्म मान लिया जाता है किन्तु वर्ण को परिवर्तनीय एवं अस्थिर माननेवाली जैन एवं बौद्ध परम्परा के लिए स्वधर्म की व्याख्या एक जटिल समस्या का रूप ग्रहण कर लेती है । इन सभी प्रश्नों का लेखक ने गम्भीरता से विश्लेषण एवं विवेचन करने का प्रयास किया है। भारतीय समाज दर्शन को मौलिक विशेषता के रूप में लेखक ने सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व का विवेचन बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से किया है। इसके अन्तर्गत् अहिंसा, अनाग्रह एवं अपरिग्रह की भावना को विशेष महत्त्व प्रदान किया है तथा यह दिखलाने का प्रयास किया है कि सामाजिक जीवन के विविध आयामों में इन भावनाओं का उपयोग किस प्रकार होता रहा है । साथ ही साथ सामाजिक धर्म एवं सामाजिक दायित्वPage Navigation
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