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पहला अध्याय : जैन संघ का इतिहास के लिए उन्होंने धर्म का मार्ग खोल दिया। तप', त्याग और इन्द्रियनिग्रह पर उन्होंने जोर दिया, तथा वेद-विहित हिंसा के विरुद्ध अहिंसा को मुख्य बताते हुए चातुर्याम धर्म (पाणातिपातवेरमण = अहिंसा; मुसावायाओ वेरमण=सत्य; अदिन्नादानाओ वेरमण=अस्तेय; बहिद्धाओ वेरमण =अपरिग्रह ) का उपदेश दिया। महावीर के मातापिता पाश्वनाथ के श्रमणधर्म के अनुयायी थे, इससे महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ का अस्तित्व सिद्ध होता है। - पार्श्वनाथ के अनेक शिष्य-प्रशिष्यों (पासावच्चिज्ज-पार्वापत्य) के उल्लेख प्राचीन आगमों में मिलते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति (९. ३२) में भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ के अनुयायी गांगेय श्रमण के बीच होने वाले संवाद का उल्लेख है। गांगेय की शंकाओं का समाधान करते हुए महावीर ने पार्श्वनाथ को पुरुषश्रेष्ठ (पुरिसादानीय) कहकर उनके प्रति आदर व्यक्त किया। अन्त में गांगेय ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म को त्यागकर महावीर के पांच महाव्रतों को अंगीकार कर लिया। आर्य कालासवेसियपुत्त भी महावीर के
१. आपस्तंब (१,२,५,११, पृ० ३१); तथा छान्दोग्य ( ३.१७.४); महाभारत शान्तिपर्व ( १५६; २५१; २६४ ) में तप को प्रशस्त कहा है।
२. वाजसनेयी संहिता (३०) के अनुसार पुरुषमेध-यज्ञ में १८४ पुरुषों का वध किया जाता था। तथा देखिये ऋग्वेद १०.६०; १.२४.३०; ६.३ । विष्णुस्मृति ( सेक्रेड बुक्स ऑव द ईस्ट, जिल्द ७; ५१, ६१-६३ ) में कहा है कि यज्ञयाग के लिए की हुई पशु-हिंसा को हिंसा नहीं समझना चाहिए, इससे तो पशुओं को सुगति ही प्राप्त होती है, तथा देखिये शतपथब्राह्मण (६.२.१.१६); आश्वलायन गृह्यसूत्र; गौतम (१७.३७ ); वशिष्ठ (११.४६ ); मनुस्मृति (५.३६ )। किन्तु शतपथब्राह्मण (१.२.३.६-६ १.२.५.१६ ); वशिष्ठ ( १०.२); तथा केन उपनिषद् ( १.३ ); छान्दोग्य ( ३.१७.४); महाभारत शान्तिपर्व (१४३-१४८; १७४, २६८-२७१; २७४) में अहिंसा को प्रशस्त कहा गया है।
३. बौद्धों के दीघनिकाय (सामण्णफलसुत्त) और मज्झिमनिकाय (चूलसकुलुदायिसुत्त ) में चातुर्याम संवर का उल्लेख है। यहाँ संवर को पालन करने के कारण निर्ग्रन्थ श्रमणों को निर्ग्रन्थ, गतत्व ( उद्देश्य सिद्धि में संलग्न ), यतत्व (यत्नशील ) और स्थितत्व ( ध्यान में स्थित ) कहा गया है ।
४. आचारांग २, ३.४०१, पृ० ३८६ ।