Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America Author(s): Jain Center of Southern America Publisher: USA Jain Center Southern California View full book textPage 6
________________ देव दर्शन धन्य घड़ी मैं दर्शन पाया, आज हृदय में आनन्द छाया । श्री जिनबिम्ब मनोहर लखकर, जिनवर रूपप्रत्यक्ष दिखाया। मुद्रा सौम्य अखण्डित दर्पण, मैं निज भाव अखण्डलखाया। निज महिमा सर्वोत्तम लखकर, फूला उर में नहीं समाया ।। राग प्रतीक जगत में नारी, शस्त्र द्वेष का चिह्न बताया। वस्त्र वासना के लक्षण हैं, इन सब निर्विकार है काया ।। जग से निस्पृह अंतदृष्टि, लोकालोक तदपि झलकाया। अद्भुत स्वच्छ ज्ञान दर्पण में, मुझको ज्ञानहि ज्ञान सुहाया॥ कर पर कर देखें मैं जब से, नहिं कर्तृत्व भाव उपजाया । आसन की स्थिरता ने प्रभु, दौड़ धूप का भाव भगाया। निष्कलंक अरू पूर्ण विरागी, एकहि रूप मुझे प्रभु भाया। निश्चय यही स्वरूप सु मेरा, अंतर में प्रत्यक्ष मिलाया ।। जिन मुद्रा दृष्टि में बस गई, भव स्वाँगों से चित्त हटाया। आत्मन् यही दशा सुखकारी, होवे भाव हृदय उमगाया ।। चैतन्य वंदना जिन्हें मोह भी जीत न पाये, वे परिणति को पावन करते। प्रिय के प्रिय भी प्रिय होते हैं, हम उनका अभिनन्दन करते। जिस मंगल अभिराम भवन में, शाश्वत सुख का अनुभव होता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ॥टेक।। जिसके अनुशासन में रहकर, परिणति अपने प्रिय को वरती। जिसे समर्पित होकर शाश्वत, ध्रुव सत्ता का अनुभव करती ।। जिसकी दिव्यज्योति में चिरसंचित, अज्ञानतिमिर घुल जाता।। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ॥१॥ जिस चैतन्य महाहिमगिरि से, परिणति के घन टकराते हैं। शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द रस, की मूसलधारा बरसाते हैं। जो अपने आश्रित परिणति को, रत्नत्रय की निधियाँ देता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।२।। जिसका चिन्तनमात्र असंख्य, प्रदेशों को रोमांचित करता। मोह-उदयवश जड़वत् परिणति, में अद्भुत चेतनरस भरता ।। जिसकी ध्यान अग्नि में चिरसंचित, कर्मों का कण-कण जलता। वन्दन उस चैतन्यराज को, जो भव-भव के दुःख हर लेता ।।३।। 5 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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