Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California
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चिन्तामणी चिन्तत मिले तरु कल्प माँगे देत हैं। तुम पूजते सब पाप भागें सहज सब सुख हेत हैं।। हे वीतरागी नाथ ! तुमको भी सरागी मानकर। माँगें अज्ञानी भोग वैभव जगत में सुख जानकर ।। तव भक्त वाँछा और शंका आदि दोषों रहित हैं। वे पुण्य को भी होम करते भोग फिर क्यों चहत हैं। जब नाग और नागिन तुम्हारे वचन उर धर सुर भये। जो आपकी भक्ति करें वे दास उनके भी भये ।। वे पुण्यशाली भक्त जन की सहज बाधा को हरें। आनन्द से पूजा करें वाँछा न पूजा की करें ।। हे प्रभो तव नासाग्रदृष्टि, यह बताती है हमें । सुख आत्मा में प्राप्त कर ले, व्यर्थ बाहर में भ्रमें। मैं आप सम निज आत्म लखकर, आत्म में थिरता धरूँ। अरु आशा-तृष्णा से रहित, अनुपम अतीन्द्रिय सुख भरूँ। जब तक नहीं यह दशा होती, आपकी मुद्रा लखू। जिनवचन का चिन्तन करूँ, व्रत शील संयम रस चलूँ। सम्यक्त्व को नित दृढ़ करूँ पापादि को नित परिहरूँ। शुभ राग को भी हेय जानूँ लक्ष्य उसका नहिं करूँ।। स्मरण ज्ञायक का सदा, विस्मरण पुद्गल का करूँ।
मैं निराकुल निज पद लहूँ प्रभु! अन्य कुछ भी नहिं चहुँ।।. ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्रायजयमालाअयं निर्वपामीति स्वाहा ।
पूज्य ज्ञान वैराग्य है, पूजक श्रद्धावान । पूजा गुण अनुराग अरु, फल है सुख अम्लान ।।
(पुष्पांजलिं क्षिपामि) (आत्मा ही आत्मा का गुरु है।)
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