Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America Author(s): Jain Center of Southern America Publisher: USA Jain Center Southern CaliforniaPage 56
________________ मिथ्याज्ञानका स्वरूप अब मिथ्याज्ञान का स्वरूप कहते हैं :- प्रयोजनभूत जीवादि तत्वों को अयथार्थ जानने का नाम मिथ्याज्ञान है । उसके द्वारा उनको जानने में संशय, विपर्याय, अनध्यवसाय होता है । वहाँ, ऐसे हैं कि ऐसे हैं ?' - इस प्रकार परस्पर विरुद्धता सहित दोरूप ज्ञान उसका नाम संशय है । जैसे - 'मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ ?' - ऐसा जानना । तथा — ऐसा ही है ' इस प्रकार वस्तुस्वरूपसे विरुद्धता सहित एकरूप ज्ञान उसका नाम विपर्याय है । जैसे - 'मैं शरीर हूँ'-ऐसा जानना । तथा 'कुछ हैं ' ऐसा निर्धाररहित विचार उसका नाम अनध्यवसाय है । जैसे - 'मैं कोई हूँ'- ऐसा जानना । इस प्रकार प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वों में संशय, विपर्यय, अवध्यवसायरूप जो जानना हो उसका नाम मिथ्याज्ञान है। तथा अप्रयोजनभूत पदार्थोंको यथार्थ जाने या अयथार्थ जाने उसकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान-सम्यग्ज्ञान नाम नहीं है । जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि रस्सीको रस्सी जाने तो सम्यम्ज्ञान नाम नहीं होता, और सम्यग्दृष्टि रस्सीको साँप जाने तो मिथ्याज्ञान नाम नहीं होता । यहाँ प्रश्न है कि - प्रत्यक्ष सच्चे-झूठे ज्ञानको सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान कैसे न कहें ? समाधान :- जहाँ जाननेहीका - सच-झूठका निर्धार करनेका प्रयोजन ही वहाँ तो कोई पदार्थ है उसके सच-झूठ जाननेकी अपेक्षा ही सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान नाम दिया जाता है । जैसे - प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणके वर्णनमें कोई पदार्थ होता है ; उसके सच्चे जाननेरूप सम्यग्ज्ञान का ग्रहण किया है और संशयादिरूपं जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कहा है। तथा यहाँ संसार-मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है ; वहाँ रस्सी, सादिकका यथार्थ या अन्यथा ज्ञान संसार-मोक्षका कारण नहीं है, 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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