Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California

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Page 40
________________ भाव महाऽर्घ- २ I पूजूँ मैं श्री पञ्च परम गुरु, उनमें प्रथम श्री अरहन्त । अविनाशी अविकारी सुखमय, दूजे पूजूँ सिद्ध महन्त ॥१॥ तीजे श्री आचार्य तपस्वी, सर्व साधु नायक सुखधाम उपाध्याय अरु सर्व साधु प्रति, करता हूँ मैं कोटि प्रणाम ॥२॥ करूँ अर्चना जिनवाणी की, वीतराग - विज्ञान स्वरूप । कृत्रिमाकृत्रिम सभी जिनालय, वन्दू अनुपम जिनका रूप ॥ ३ ॥ पंचमेरु नन्दीश्वर वन्दूँ, जहाँ मनोहर हैं जिनबिम्ब । जिसमें झलक रहा है प्रतिपल, निज ज्ञायक का ही प्रतिबिम्ब ॥४॥ भूत भविष्यत् वर्तमान की, मैं पूजूँ चौबीसी तीस । विदेह क्षेत्र के सर्व जिनेन्द्रों के, चरणों में धरता शीश ॥ ५ ॥ तीर्थङ्कर कल्याणक वन्दूँ, कल्याणक अरु अतिशय क्षेत्र । कल्याणक तिथियाँ मैं चाहूँ और धार्मिक पर्व विशेष || ६ || सोलहकारण दशलक्षण अरु, रत्नत्रय वन्दू धर चाव । दयामयी जिनधर्म अनूपम, अथवा वीतरागता भाव ॥७॥ परमेष्ठी का वाचक है जो, ओंकार वन्दूँ मैं आज । सहस्रनाम की करूँ अर्चना, जिनके वाच्य मात्र जिनराज ॥८॥ जिसके आश्रय से ही प्रगटें, सभी पूज्यपद दिव्य ललाम । ऐसे निज ज्ञायक स्वभाव की, करूँ अर्चना मैं अभिराम || | दोहा - भक्तिमयी परिणाम का, अद्भुत अर्घ्य बनाय । सर्व पूज्य पद पूजहूँ, ज्ञायकदृष्टि लाय ||१०|| Jain Education International ॐ स्वाध्यायः परमं तपः For Private & Personal Use Only 39 www.jainelibrary.org

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