Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California

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Page 44
________________ जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को। वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ।।८९॥ निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से। तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ॥९०।। द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना । तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं।।९१।। आगमकुशल दृगमोहहत आरूढ़ हों चारित्र में। बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में॥९२॥ देखकर संतुष्ट हो उठ नमन वन्दन जो करे। वह भव्य उनसे सदा ही सद्धर्म की प्राप्ति करे ।।८।। उस धर्म से तिर्यंच नर नरसुरगति को प्राप्त कर । ऐश्वर्य-वैभववान अर पूरण मनोरथवान हों॥९॥' ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार द्रव्यसामान्याधिकार सम्यक् सहित चारित्रयुत मुनिराज में मन जोड़कर । नमकर कहूँ संक्षेप में सम्यक्त्व का अधिकार यह॥१०॥ गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय । गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय ।।९३।। पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में। थित जीव ही हैं स्वसमय - यह कहा जिनवरदेव ने।।९४॥ निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुणपर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें।।१५।। गुण-चित्रमयपर्याय से उत्पादव्ययध्रुवभाव से। जो द्रव्य का अस्तित्व है वह एकमात्र स्वभाव है।९६।। रे सर्वगत सत् एक लक्षण विविध द्रव्यों का कहा। जिनधर्म का उपदेश देते हुए जिनवरदेव ने ।।१७।। स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है। यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ।।९८॥ • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा८-९ और १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainel 43 y.org

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