Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California
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श्री पंचबालयति जिनपूजन
(हरिगीतिका) निज ब्रह्म में नित लीन परिणति से सुशोभित हे प्रभो। पञ्चम परम निज पारिणामिक से विभूषित हे विभो।। हे नाथ तिष्ठो अत्र तुम सन्निकट हो मुझमय अहो।
श्री बालयति पाँचों प्रभु को वन्दना शत बार हो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य-मल्लि-नेमि-पार्श्व-वीरा: पंचबालयतिजिनेन्द्राः ! अत्र अवतरन्तु अवतरन्तु संवौषट् । अत्र तिष्ठन्तु तिष्ठन्तु ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवन्तु भवन्तु वषट् (इति आह्वाननं स्थापनं सनिधिकरणञ्च)
(वीरछन्द) हे प्रभु! ध्रुव की ध्रुव परिणति के पावन जल में कर स्नान । शुद्ध अतीन्द्रिय आनन्द का तुम करो निरन्तर अमृत-पान ।। क्षणवर्ती पर्यायों का तो जन्म-मरण है नित्य स्वभाव।
पंच बालयति-चरणों में हो तन संयोग-वियोग अभाव ।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य-मल्लि-नेमि-पार्श्व-वीराःपंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो जन्म-मरा-मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीतिस्वाहा।
सुरभित चेतनद्रव्य आपकी परिणति में नित महक रहा। क्षणवर्ती चैतन्य विवर्तन की ग्रन्थि में चहक रहा ।।
(५) आओ रे आओ रे ज्ञानन्द की... आओ रे आओ रे ज्ञानन्द की डगरिया । तुम आओ रे आओ, गुण गाओ रे गाओ । चेतन रसिया आनन्द रसिया ।। टेक।। बड़ा अचम्भा होता है, क्यों अपने से अनजान रे । पर्यायों के पार देख ले, आप स्वयं भगवान रे ।।१।। दर्शन-ज्ञान स्वभाव में, नहीं ज्ञेय का लेश रे । निज में निज को जान कर तजो ज्ञेय का वेश रे ।।२।। मैं ज्ञायक मैं ज्ञान हैं, मैं ध्याता मैं ध्येय रे । ध्यान-ध्येय में लीन हो, निज ही निज का ज्ञेय है ।।३।।
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