Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America Author(s): Jain Center of Southern America Publisher: USA Jain Center Southern California View full book textPage 5
________________ दर्शन-स्तुति नाथ तुम्हारे दर्शन से, निज दर्शन मैंने पाया। तुम जैसी प्रभुता निज में लख, चित मेरा हुलसाया ।।टेक।। तुम बिन जाने निज से च्युत हो, भव-भव में भटका हूँ। निज का वैभव निज में शाश्वत, अब मैं समझ सका हूँ। निज प्रभुता में मगन होऊँ, मैं भोगूं निज की माया॥१॥ पर्यय में पामरता, तब भी द्रव्य सुखमयी राजे । पर्य यदृष्टि गौण करूँ, निजभाव लखू सुख काजे ।। पर्यय में ही अटक-भटक कर, मैं बहु दु:ख उठाया ।।२।। पद्मासन थिर मुद्रा, स्थिरता का पाठ पढ़ाती। निजभाव लखे से सुख होता, नासादृष्टी सिखलाती ।। कर पर कर ने कर्तृत्व रहित, सुखमय शिवपंथ सुझाया ।।३।। यही भावना अब तो भगवन, निज में ही रम जाऊँ। आधि-व्याधि-उपाधि रहित, मैं परमसमाधि पाऊँ ।। ज्ञान-सुखमयी ध्रुव स्वभाव ही, अब मेरे मन भाया ।।४।। प्रभु-दर्शन प्रभु वीतराग मुद्रा तेरी, कह रही मुझे निधि मेरी है। हे परमपिता त्रैलोक्यनाथ, मैं करूँ भक्ति क्या तेरी है।।१।। नाशब्दों में शक्ति इतनी, जो वरणसके तुम वैभव को। बस मुद्रा देख हरष होता, आतम निधिजहाँ उकेरी है।॥२॥ इससे दृढ़ निश्चय होता है, सुख ज्ञान नहीं है बाहर में। सब छोड़स्वयं में रमजाऊँ, अन्तर में सुख की ढेरी है।।३।। नहिं दाता हर्ता कोई है, सब वस्तु पूर्ण हैं निज में ही। पूर्णत्व भाव की हो श्रद्धा, फिर नहीं मुक्ति में देरी है॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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