Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California
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धर्मतीर्थका हुआ प्रवर्तन, आत्मबोध जग पाया। प्रभो! आपका शासन पाकर, रोम रोम हुलसाया।६।। वर्ष बहत्तर आयु पूर्ण कर, सिद्धालय तिष्ठाये। तुम गुण चिन्तन मोह नशावे, भेदज्ञान प्रगटावे॥१०॥ सहज नमन कर पूजन का फल और न कुछ भी चाहूँ।
सहज प्रवर्ते तत्त्वभावना आवागमन मिटाऊँ।।११।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तयेजयमालापूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(बसन्ततिलका) सत्तीर्थवीर प्रभु का जग में प्रवर्ते,
निज तत्त्वबोध पाकर सब लोक हर्षे । दुर्भावना न आवे मन में कदापि,
निर्विघ्न निर्विकारी आराधना प्रवर्ते। (इत्याशीर्वादःपुष्पांजलिंक्षिपामि)
कर्त्तव्याष्टक आतम हित ही करने योग्य, वीतराग प्रभु भजने योग्य । सिद्ध स्वरूप ही ध्याने योग्य, गुरु निर्ग्रन्थ ही वंदन योग्य ।।१।। साधर्मी ही संगति योग्य, ज्ञानी साधक सेवा योग्य । जिनवाणी ही पढ़ने योग्य, सुनने योग्य समझने योग्य ॥२॥ तत्त्व प्रयोजन निर्णय योग्य, भेद-ज्ञान ही चिन्तन योग्य । सब व्यवहार हैं जानन योग्य, परमारथ प्रगटावन योग्य ।।३।। वस्तुस्वरूप विचारन योग्य, निज वैभव अवलोकन योग्य । चित्स्वरूप ही अनुभव योग्य, निजानंद ही वेदन योग्य ।।४।। अध्यातम ही समझने योग्य, शुद्धातम ही रमने योग्य । धर्म अहिंसा धारण योग्य, दुर्विकल्प सब तजने योग्य ।।५।। श्री जिनधर्म प्रभावन योग्य, ध्रुव आतम ही भावन योग्य। सकल परीषह सहने योग्य, सर्व कर्म मल दहने योग्य ।।६।। भव का भ्रमण मिटाने योग्य, क्षपक श्रेणी चढ़ जाने योग्य । तजो अयोग्य करो अब योग्य, मुक्तिदशा प्रगटाने योग्य ।।७|| आया अवसर सबविधि योग्य, निमित्त अनेक मिले हैं योग्य । हो पुरुषार्थ तुम्हारा योग्य, सिद्धि सहज ही होवे योग्य ।।८।।
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