Book Title: Jain Adhyatma Academy of North America
Author(s): Jain Center of Southern America
Publisher: USA Jain Center Southern California

Previous | Next

Page 20
________________ गुणगान करूँहे नाथ आपका कैसे? हे ज्ञानमूर्ति ! हो आप आपही जैसे। हो निर्विकल्प निर्ग्रन्थ निजातम ध्याऊँ, __परभावशून्य शिवरूप परमपद पाऊँ।। अद्वैत नमन हो प्रभो सहज अविकारा। चितशान्त हुआ मैं जाना जाननहारा ॥४॥ कुछ रहा न भेद विकल्प पूज्य पूजक का, उपजेन द्वन्द दुःखरूप साध्य साधक का। ज्ञाता हूँ ज्ञातारूप असंग रहूँगा, पर की न आस निज में ही तृप्त रहूँगा। स्वभाव स्वयं को होवे मंगलकारा। चित शान्त हुआ मैं जाना जाननहारा ।।५।। (घत्ता ) जय शान्ति जिनेन्द्रं, आनन्दकन्दं, नाथ निरंजन कुमतिहरा। जो प्रभु गुणगावें, पाप मिटावें, पावें आतमज्ञान वरा ।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला-पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । (दोहा) भक्तिभाव से जो जजें, जिनवर चरण पुनीत । वे रत्नत्रय प्रगटकर, लहें मुक्ति नवनीत ।। (इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपामि) भाव-भक्ति प्रभुवर ऐसी पूजा रचाऊँ, जासों दुखमय पाप नशाऊँ ।।टेक॥ अन्तर्दृष्टि कर प्रभु सम ही, आतम देव लखाऊँ। भेदज्ञान से छने सुप्रासुक, अनुभव जल से नहाऊँ।।१।। भक्तिभाव से रोमांचित हो, तत्त्वभावना भाऊँ। तज परिग्रह जंजाल विषय सब, अधिकअधिकहर्षाऊँ।२।। समरस जल ले क्षमा भावमय, उत्तम चन्दन लाऊँ। अमल भावमय अक्षत लेकर, पुष्प शील प्रगटाऊँ।३।। आतम रसमय नैवेद्य लेकर, ज्ञानदीप प्रज्वलांऊँ। ध्यान अग्नि में कर्म जलाऊँ, परमभाव फल लाऊँ॥४॥ अर्घ्य अभेद भक्तिमय लेकर, शान्त नृत्य विलसाऊँ। पूजक पूज्य विकल्प नशाऊँ, सहज पूज्य पद पाऊँ।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66