Book Title: Hingul Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek, 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Jain Education अर्थ- जगतमां जे माणस स्त्रीउंमां लुब्ध श्रयो बे, ते माणसने यशे तजेलो बे; केमके, दासीप्रतेना लुब्धजावथी मुंजराजानी शुं अपकीर्ति नथी थइ ? ( यइ बेज. ) ॥ १ ॥ अंतर्दुष्टामुखे मिष्टा, श्रनिष्टाका श्रतः परम् । विषवारी वत्त्याज्या, ज्ञानि निःसुखका मिनिः २ अर्थ - अंतरंगमां कुष्ट, तथा मोहोडे मीठी एवी आ ( स्त्रीथी ) बीजी कई वस्तु अनिष्ट बे ? माटे सुखनी इछा करनारा ज्ञानीए फेरी वेलडीनी पेठे तेणीने तजवी. ॥ २ ॥ उग्रसंजोगतः सूरि-कंता हि नरकं गता । स्वर्गं गतः प्रदेशीच, तत्र संवरकारणम् ॥ ३ ॥ अर्थ- सूरिकंता उग्रसंजोगथी नरके गएल बे, अने प्रदेशी राजा स्वर्गे गएल बे, तेमां संवर कारणरूप बे. ॥ ३ ॥ | अंतः श्यामा बहिः श्यामा, रक्षाया गुटिकाश्व । बहिर्दधति सौंदर्य - मंतस्तानस्मराशयः ४ - स्त्री राखनी गोलीनी पेठे चंदर ने बहारथी श्याम होय बे; वली बहारथी सुंदरताने धारण करे बे, तथा अंदर तो जस्मोना ढगला सरखी बे. ॥ ४ ॥ tional श्रीमत्को किराट्च चेटकनृपैः साकं महत्संगरं, चक्राणः किलकामकेलिक खितः पद्मावतीप्रेरितः । For Personal and Private Use Only inelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56