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॥ हिंगुल प्रकरण प्रारंजः॥
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हिंगुल प्रकरम्.
कर्ता श्री विनयसागरोपाध्यायजी तेनुं मूलसहित संस्कृतपरथी गुजराती जाषांतर जामनगर निवासि पंडित श्रावक हीरालाल वि. हंसराज पासे करावी पावी प्रसिद्ध करनार.
श्रावक जीमसिंह माणेक
मुंबई.
निर्णयसागर प्रेसमां पावी प्रसिद्ध की धुं. सने १५००
संवत १५६
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श्री हिंगुल प्रकरणम्
( कर्ता श्री विनय सागरोपाध्यायजी )
श्री मन्त्री वासुपूज्यश्च जगदानंददायकः । कल्पवृक्षोपमोनूया - त्सुखसंतति सिद्धये ॥१॥ - जगतानंदपनारा, तथा कल्पवृक्ष सरखा एवा श्रीमान् वासुपूज्य प्रभु सुखोनी श्रेणिनी सिद्धि माटे था ? ॥ १ ॥
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हिंगुल प्रकरोऽयं च, बालारुणो विचक्षणाः । तर्कयंती ति यं दृष्ट्वा, पद्मप्रनो मुदेऽस्तुसः ॥२॥ अर्थ- जेमने जोड़ने " आ तो हिंगुलनो समूह वे " तथा " जगतो सूर्य बे ” एम पंडितो तर्क करे बे, ते श्री पप्रन प्रभु हर्ष माटे था ? ॥ २ ॥ जनयंति वशाः पुत्रान्, जाग्यं स्वोपार्जितं यथा । ग्रंथान् कुर्वति विद्वांसो, गुणा द्विस्तरता नवेत्
अर्थ- स्त्री पुत्रोने जन्म पे बे, पण तेनुं जाग्य जेम ( तेजनी कीर्ति) फेलावे बे, तेम विधानो ग्रंथो बनावे बे, पण तेमां रहेला गुणोथी तेज॑नो विस्तार थाय बे. ॥ ३ ॥
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हिंगुल.
॥ १॥
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सुपात्रे दीप्तिकृद्विद्या, सुपात्रेदी सिकृत्कला । सुपात्रे दी तिकृन्मैत्री, सुपात्रेदी तिकृद्धनम् ४ अर्थ- सुपात्र प्रते पेली विद्या, सुपात्रने पेली कला, सुपात्र साथे करेली मित्राइ तथा सुपात्रने पेलुं धन शोजा करे बे. ॥ ४ ॥
कुपात्रेऽनर्थकृद्विद्या, कुपात्रेऽनर्थकृत्कला । कुपात्रेऽनर्थकृन्मैत्री, कुपात्रेऽनर्थक्रुद्धनम् ॥५॥
अर्थ- कुपात्रने पेली विद्या अनर्थ करनारी बे, तेम कुपात्रने आपली कला पण अनर्थ करनारी बे, कुपात्र साथे करेली मित्राइ पण अनर्थ करनारी वे, तेम कुपात्रने पेलुं धन पण अनर्थ करनारुं बे. ॥५॥ | नास्ति न्यायसमं सत्यं, नास्ति धर्म समः सखा । नास्त्युद्यमसमं मित्रं, नास्ति जाग्यसमं धनम्
अर्थ- - न्याय समान ( बीजुं ) सत्य नथी, धर्मसमान ( बीजो ) मित्र नथी, उद्यम समान ( बीजो ) सोबती नथी, तथा जाग्यसमान ( बीजुं ) धन नथी. ॥ ६ ॥
| देहस्य भूषणं प्रौढिः, सुमंत्री राज्यभूषणम् । रूपस्य भूषणं विद्या, सद्धर्म्यं नरभूषणम् उ अर्थ- शरीरनुं भूषण गंभीरता बे, राज्यनुं भूषण उत्तम मंत्री बे, रूपनुं भूषण विद्या बे, तथा पुरुषनुं भूषण उत्तम धर्मनी लागणी बे. ॥ ७ ॥
देहस्य दूषणं तंद्रा, कुमंत्री राज्यदूषणम्। रूपस्य दूषणं जाड्य --
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य-मधाम्यं नरदूषणम् ॥ ८ ॥
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प्रकरणं
॥१॥
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अर्थ- श्राखस ने ते शरीरनुं दूषण , खराब मंत्री राज्य- दूषण , मूर्खता रूपनुं दूषण , तथा अधार्मिकपणुं पुरुषनुं दूषण . ॥७॥ पुण्याच्च धनमाप्नोति, कीर्तिमिदति तनात्। परत्र वर्गसौख्यं च, ह्यपवर्ग क्रमात्ततः॥ए॥ | अर्थ- पुण्यश्री प्राणी धन मेलवे बे, अने ते धनश्री श्रा लोकमां ते कीर्तिने प्राप्त श्रायडे, परलोकमां | | स्वर्गना सुखने मेलवे ने, तथा पठी अनुक्रमे मोदने पण मेलवे . ॥ ए॥
सम्यगाराधितो वर्गः,प्रथमो यैश्चजन्तुनिः। तेषां साध्यास्त्रयो वर्गा,अनुक्रमेण मंत्रिवत् १० | अर्थ- जे प्राणीउए पहेला वर्गने एटले धर्मने सारी रीते आराध्यो , तेउने अनुक्रमे मंत्रिनी पेठे | त्रणे वर्गो साध्य थाय . ॥ १० ॥ प्रियं ब्रूहि प्रियं कुर्यात्, प्रियमेवामृतं परम्। प्रियवचःप्रदानेन, नवंति प्राणिनः प्रियाः११ । | अर्थ- हे प्राणी ! तुं प्रिय बोल ? तथा प्रिय कर ? केम के प्रिय बे ते उत्कृष्ट अमृत सर ने, वली || || प्रिय वचनना दानथी प्राणी प्रिय श्रश् पडे . ॥११॥
विद्यासमं नास्ति शरीरनूषणं। निंदासमं नास्ति शरीरदूषणम्।
तृष्णासमा नास्ति परा च चिंता । क्लेशोपशांतेः समता परा न ॥ १५ ॥ अर्थ- विद्या समान (बीजु ) शरीरनुं जूषण नथी, तेम निंदासमान (बी) शरीरनुं दूषण नथी, वली
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हिंगुल. || तृष्णासमन (बीजी) मोटी चिंता नथी; तथा क्लेशनी शांतिथी (बीजी) उत्कृष्टी समता नथी. ॥१॥|||प्रकरणं.
शब्दोरूपं रसोगंधः, स्पर्शों लोगोहि पंचधा।किंपाकफलवद्द्वात्वा,दूरे यांति मनीषिणः१३ ॥२॥ अर्थ- शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्शना नेदोथी लोगो पांच प्रकारना , तेउने किंपाकवृदना फलआज तुट्य जाणीने पंडितो ( तेलंथी ) दूर जाय . ॥ १३॥ संतोषःपरमं सौख्यं, संतोषः परमामृतम्। संतोषः परमं पथ्यं, संतोषः परमंहितम् ॥ १४॥ अर्थ- संतोष ने ते, उत्कृष्टुं सुख, उत्कृष्टुं अमृत, उत्कृष्टुं पथ्य, तथा उत्कृष्टुं हित ले. ॥१५॥ स्थानानि चाष्टादश किल्बिषस्य । तथैव सप्त व्यसनानि विश्वे ।।
त्याज्यानि नव्यैर्नवपुःखहेतुर्विशेषतः पापमतिःप्रमोच्या ॥१५॥ अर्थ- जव्य माणसोए आ मुनीयामा अढार पापस्थानकोने, तेमज साते व्यसनोने तजवां, तथा संKल सारना मुःखना हेतुरूप एवी पापबुधिने पण विशेष प्रकारे तजवी. ॥१५॥
धार्यः प्रबोधो हृदि पुण्यदानं, शीलं सदांगीकरणीयमेव । तप्यं तपो जावनयैव कार्या, जिनेउपूजा गुरुनक्तिरुद्यमः ॥ १६ ॥
॥२॥ अर्थ- हृदयमां बोधने धारण करवो, पुण्यदान करवं, शीलने हमेशां अंगीकार करवू, तप तपवो, तथा नावनाथी जिनपूजा अने गुरुजक्ति करवी; तेम उद्यम पण करवो.॥१६॥
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हिंगुल
॥३॥
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( अथ मृषावादप्रक्रमः )
संध्या रागवन्मिथ्या, वचनं कथमुच्यते । प्रती तिजंगकृच्चात्र, परत्र दुःखकारणम् ॥ १ ॥ अर्थ- संध्याकालनां वादलांना रंगसरखुं मिथ्यावचन शामाटे बोलवु जोइयें ? केमके, ते या लोकमां विश्वासनो जंग करनाएं, तथा परलोकमां दुःखनुं कारण बे. ॥ १ ॥
यारण्ये रोदना सिद्धि, र्यासिद्धिः क्कीबकोपनात् । कृतघ्नसेवनात्सिद्धिः, सा सिद्धिः कूटभाषणात् ॥ २ ॥
अर्थ- वनमांजरडवाथी जे सिद्धि याय, तथा नपुंसकना क्रोधथी जे सिद्धि थाय, ते सिद्धि जूं बोयाथी थाय बे ॥ २ ॥ अग्निनासिंच्यमानोऽपि, वृक्षोवृद्धिंन चाप्नुयात्। तथासत्यं विना धर्मः, पुष्टिं नायाति कर्हि चित् अर्थ- जेम अनि सींचातुं वृक्ष वृद्धि पामतुं नथी, तेम सत्यविना धर्म कोइ पण समये पुष्टिने प्राप्त थतो नथी. ॥ ३॥
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सत्यवक्तुर्भुवि पक्षपातं कुर्यान्न विद्वान् किल संकटेऽपि । ध्रुवं हि वसुराजवत्स, इहापवादं नरकं परत्र ॥ ४ ॥
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प्रकरणं
॥३॥
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अथ प्राणातिपातप्रक्रमः यो दधाति तृणंवक्ते, प्रत्यनीकोऽपि मानवी । सोऽवध्यः सतां लोके, कथं वध्यास्तृणादनाः | अर्थ- वैरी एवो पण जे माणस मुखमां तृण लेने, ते सजनोने मारवालायक होतो नश्री, त्यारे तृणना लक्षण करनारा (पशुऊने तो ) केमज मारी शकाय ? ॥१॥
प्रमादेन यथा विद्या, कुशीलेन यथा धनम्। कपटेन यथा मैत्री, तथा धर्मोन हिंसया ॥२॥ Nअर्थ-प्रमादश्री जेम विद्या, उष्टाचरणथी जेम धन, तथा कपटथी जेम मित्राइ, तेम हिंसाथी धर्म
अ शकतो नथी. ॥२॥ शिलां समधिरूढाश्च,निमति जलांतरे। हिंसाश्रिताश्च ते तहत् समाश्रयंति पुर्गतिम् ३
अर्थ- जेम पत्थरपर चमेला माणसो पाणीमां मुबे , तेम हिंसाने आश्रित अएला प्राणी मुर्गहातिमां जाय जे. ॥३॥
लावण्यरहितं रूपं, विद्यया वर्जितं वपुः। जलत्यक्तं सरोजाति, तथा धर्मो दयांविना ॥४॥ N अर्थ- लावण्यविनानुं जेम रूप, विद्याविनानुं जेम शरीर, तथा जलविनानुं जेम तलाव तेम दयाविना धर्म शोजतो (नथी.)॥४॥
(इति प्राणातिपातंप्रक्रमः )
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अर्थ-विधान् माणसें खरेखर श्री जगतमां असत्य बोलनारनो, संकट आवे तोपण पक्षपात करवो नहीं, केमके, तेथी ते माणस खरेखर वसुराजानी पेठे या लोकमां अपवादने थाने परलोकमां नरकने मेलवे बे. ४
( इतिमृषावादप्रक्रम ) ( अथ अदत्तादानप्रक्रमः )
| कातराणां यथा धैर्य, वंध्यानां संततिर्यथा । न विश्वासस्तथा लोके, नृणामदत्तद्दारिणाम् १ - बीकोने जेम धैर्य, तथा वांजी आउने जेम संतति होती नथी, तेम दुनीयामां चोरी क रनाराउंनो विश्वास होतो नथी. ॥ १ ॥ कुक्षिं शाकेन पूर्येत, यदिस्तोकं धनार्जनम् । परंनाऽदत्तमादद्या, द्यतःस्याद्रूपतेर्जयम् ॥ २ ॥ - थोकुं धन कमाता होश्यें, तो फक्त शाकथीज पेट नरकुं; पण जेथी राजानो जय थाय, एवी चोरी करवी नहीं ॥ २ ॥ श्रदत्तंधनंनादद्या, त्सुख विप्सुर्हिमानवः । ससद्योडुःखमाप्नुयान्, मंकुकचौरव किल ॥ ३ ॥
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अर्थ- सुख मेलववानी इवावाला माणसे चोरीनुं धन लेवुं नहीं, केमके तेथी तेने मंडुक चोरनी पेठे तुरत दुःख मले बे ॥ ३ ॥
| अनिष्टः खचरे धूकः, स्वामिद्रोही नरेषु च । अनीष्टादप्यनिष्टंच, अदत्तमँपलक्षणे ॥ ४ ॥
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हिंगुल
॥४॥
अर्थ- खेचरोमां धुवड अनीष्ट बे, तथा माणसोमां स्वामिनो प्रोह करनारो अनीष्ट बे ने अपलक्षणमां चोरी छानी ष्टथी पण अनीष्ट बे ॥ ४ ॥
मादत्तं हि गृहाण वस्तु यदिचेत्तन्ना स्तियुज्यते, धैर्यं धेहि तथापि पक्षिनिवहा नीरं लते स्थले । दत्तंयेन वपुः सएव जुवि नो चिंतांकरिष्यत्यदो,
का वार्ता खलु ताः समग्ररचनाश्चिंता च तस्मिन् स्थिता ॥ २ ॥
अर्थ- हे प्राणी ! तुं चोरीनी वस्तु ग्रहण नहीं कर ? जो तारी पासे ते वस्तु न होय, तो जे तुं जोगवे बे, तेमांज धैर्य ( संतोष ) राख ? केमके पक्षिर्जना समूहो स्थलपर जलने मेलवे बे; वधारे शुं कहेवुं; जेणे (आ) शरीर श्राप्यं बे, तेज जगतमां श्रापणी फिकर करशे अने ते सघली रचना तथा चिंता तेनामांज रहेली बे ॥ ५ ॥
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( इति अदत्तादानप्रक्रमः (अथ मैथुनप्रक्रमः)
स्त्रीलुब्धो जगति यश्चा, ऽत्यजद्यशस्तु तं नरम्, 1
दासी लुब्ध्या यथा मुंजो, ऽपकीर्त्या गीयते न किम् ॥ १ ॥
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प्रकरणं.
॥४॥
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अर्थ- जगतमां जे माणस स्त्रीउंमां लुब्ध श्रयो बे, ते माणसने यशे तजेलो बे; केमके, दासीप्रतेना लुब्धजावथी मुंजराजानी शुं अपकीर्ति नथी थइ ? ( यइ बेज. ) ॥ १ ॥
अंतर्दुष्टामुखे मिष्टा, श्रनिष्टाका श्रतः परम् । विषवारी वत्त्याज्या, ज्ञानि निःसुखका मिनिः २
अर्थ - अंतरंगमां कुष्ट, तथा मोहोडे मीठी एवी आ ( स्त्रीथी ) बीजी कई वस्तु अनिष्ट बे ? माटे सुखनी इछा करनारा ज्ञानीए फेरी वेलडीनी पेठे तेणीने तजवी. ॥ २ ॥
उग्रसंजोगतः सूरि-कंता हि नरकं गता । स्वर्गं गतः प्रदेशीच, तत्र संवरकारणम् ॥ ३ ॥
अर्थ- सूरिकंता उग्रसंजोगथी नरके गएल बे, अने प्रदेशी राजा स्वर्गे गएल बे, तेमां संवर कारणरूप बे. ॥ ३ ॥
| अंतः श्यामा बहिः श्यामा, रक्षाया गुटिकाश्व । बहिर्दधति सौंदर्य - मंतस्तानस्मराशयः ४ - स्त्री राखनी गोलीनी पेठे चंदर ने बहारथी श्याम होय बे; वली बहारथी सुंदरताने धारण करे बे, तथा अंदर तो जस्मोना ढगला सरखी बे. ॥ ४ ॥
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श्रीमत्को किराट्च चेटकनृपैः साकं महत्संगरं, चक्राणः किलकामकेलिक खितः पद्मावतीप्रेरितः ।
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हिंगुल
॥५॥
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जोगासक्तमना नृपो मणिरथो यात्रासमं चाऽकरोत्
द्रोहं मोहवशात्परंतु तदनु प्राप्तं फलं कीदृशम् ॥ ५ ॥ - पनावतीथी प्रेराएला तथा काम क्रीडाथी युक्त थरला एवा श्रीमान् कोपिक राजा, चेडा राजानी साथे मोटो रणसंग्राम कर्यो, वली मोहना वशथी जोगोमां श्रासक्त थएन' मन जेनुं एवा मणिरथ राजाए जाइनी साथे जोह कर्यो; पण तेनी पाबल तेने फल केवुं मयुं. ? ॥ ५ ॥ ( इति मैथुन प्रक्रमः ) ( अथ परिग्रह प्रक्रमः )
प्रमेहिनां विषं सर्पि-मैथुनं चकुरो गिणाम्। तद्वन्निश्शेषजंतूनां, कालकूटः परिग्रहः ॥ १ ॥ अर्थ - प्रमेहना रोगवालाने घी जेम फेररूप बे, तथा चतुना रोगीउने मैथुन जेम फेररूप बे, तेम सर्व प्राणीउने परिग्रह केररूप बे. ॥ १ ॥ यथाब्धेर्जलबिंदूनां, संख्यानैवात्र लभ्यते । तथैव धनलुब्धानां दुःखमानं न दृश्यते ॥ २ ॥ अर्थ – जेमा जगतमां समुझना पाणीना बिंडुनी संख्या मलती नथी, तेम धनना लोनीजनां | दुःखोनुं प्रमाण देखाइ शकतुं नथी. ॥ २ ॥
| अशुष्कं यदि वाशुष्क, मग्निः किं गणयेत् कदा । परिग्रह्नतस्तद्वन्, न जानते परं निजम् ३
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प्रकरणं.
॥ ५॥
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अर्थ- अग्नि शुं खीलु के सूकुं गणे ? तेम परिग्रहमां आसक्त अएलो माणस पोतानुं के परनुं | जाणी शकतो नथी. ॥३॥
शीतज्वरीव शीतेन, वस्त्रावृत्तोऽपि पीड्यते।परिग्रही धनासक्तः, पीड्यते धनतृष्णया ॥४॥ all अर्थ- जेम टाढीया ताववालो माणस वस्त्रोथी वीटाया बतां पण पीडा पामे , तेम धननो लोलुपी IN|| परिग्रहधारी माणस धननी तृष्णाश्री पीडाय .॥४॥
गिर्यारोहणतां समुपतरणं देशाटनासेवनं,
पाताले विवरे प्रवेशकरणं निःशंकमित्यादिकम् । यः कुर्याच्च परिग्रहैकहृदयश्चेष्टामनेकामिह,
मृत्वेतो नरकावटेषु गमनं चक्री सुजूमोऽकरोत् ॥५॥ __अर्य- पर्वतपर चडवापणुं, समुप्रमा तरवापर्यु, देशाटन, पाताल तथा लोयरामा प्रवेश, इत्यादि अ-. नेक प्रकारनी चेष्टा जेसुनूम चक्रीए परिग्रहमांपासक्त थानेशही करी, तेथी ते मृत्यु पामीने नरकमांगयो. ५
(इति परिग्रहप्रक्रमः)
(अथ क्रोधप्रक्रमः) कदममुष्टि प्रहाराद्य-नर्थान् करोत्यनेकशः। नूतावेष्टितवलोके, कोपयुक्तो हि मानवः ॥१॥
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प्रकरणं.
हिंगुल. अर्थ- क्रोधयुक्त माणस दुनीयामां जाणे जूतजराएलो अयो होय नहीं जम, तेम दंड, मुष्टि आदि
कना अनेक प्रहारोरूपी अनोंने करे . ॥१॥ उर्गति प्रापणे पदो, विपक्षःशुजकर्मणाम्।सपद श्रापदः क्रोधः, सकेनाजियते ततः॥२॥
अर्थ-मुर्गतिनी प्राप्तिमां पक्ष करनारो, तथा शुभकार्योनो शत्रुजूत तथा आपदानो सोबती एवो क्रोध जाने, माटे तेथी तेने कोण अंगीकार करे ? ॥२॥ IN ज्वलहलवनाति, कायःप्रायोऽति कोपिनः। मुखे डायांतरे दाहः, सर्वेषां जीमदर्शनः॥३॥ ना अर्थ-अत्यंत क्रोधी एवा माणसनुं शरीर प्रायें करीने बखता बावलसरलुं शोने जे; तथा मुखने विषे)
गया, अने अंदरमा दाहवालो एवो ते जयंकर दर्शनवालो होय जे. ॥३॥
थाकरः सर्व दोषाणां, गुणानां च दवानल संकेतोऽखिलकष्टानां,क्रोधस्त्याज्यो मनीषिणा, Kol अर्थ- सर्व प्रकारनां दोषोनी खाणसरखो, तथा गुणोने बालवामां दावानल सरखो, अने सर्व मुःखोना संकेतरूप एवो क्रोध बुद्धिवान माणसे तजवो. ॥४॥ क्रोधानिनूतपुरुषा नरके व्रजेयु-स्तत्रापि तामन निबंधनमारणोत्थम् ।
कुःखं धनं च सदनं कृतकर्मणां च, श्रीकृष्णवजनगणाःसमुपार्जयंति ॥५॥ अर्थ- क्रोधथी पराजव पामेला पुरुषो नरकमां जाय , तथा त्यां पण ताडन, बंधन, मारण आदि
॥६॥
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२
कथी उत्पन्न थएला दुःखने मेलवे बे; अने एवी रीते माणसोना समूहो श्रीकृमनी पेठे, ( पोते ) करेलां कर्मोने जोगवे बे. ॥ ५ ॥
( इति क्रोधप्रक्रमः ) ( अथ मानप्रक्रम: )
यः स्तब्धो गुरुणा साक- मन्यस्यनमनं कुतः । न बाया यै न लाजाय, मानी कंथेरवन्नृणाम् १
अर्थ- जे मानी माणस गुरुनी समीपे पण अक्कड थइने रहे बे; त्यारे बीजाने नमवानी तो वातज शी करवी ? अने एवी रीते मानी माणस कंथेरना वृक्षनी पेठे माणसोने बायादायक के लाभदायक थइ शकतो नथी. ॥ १ ॥
स्थाणुर्वा पुरुषो वाऽयं, दृट्वेति तर्कयं तियम् । स मानी दूरतस्त्याज्यो नम्रा दिगुणवर्जनात् ॥ १॥ अर्थ- जेने जोड़ने व बे के पुरुष बे ? एवी रीते लोको तर्क करे बे, एवी रीते नम्रादिक गुणोथी | रहित थएला मानीने दूर तजवो ॥ २ ॥
शिक्षां बनते नो मानी, विद्यामीयान्न कर्हिचित् । विनयादि क्रियाशून्यः, स्तंजवत्स्तब्धतां गतः ॥ ३॥
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हिंगुल
॥७॥
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- विनायादिकनी क्रियाथी शून्य थलो, तथा स्तंजनी पेठे स्तब्धपणाने प्राप्त थलो एवो अहंकारी माणस शिखामणने प्राप्त यतो नथी, तथा कोइ पण समये विद्याने प्राप्त थतो नथी. ॥ ३ ॥ अरण्यजं तरोः पुष्पं, समुद्रांश्च शीतलम् । लावण्यं दंजिनां तद्वन्मानिमानं निरर्थकम् ॥ अर्थ- जेम वनमां उत्पन्न थएलुं पुष्प, तथा समुद्रमां रहेलुं शीतलपाणी, तथा, जेम कपटीनुं लावण्य तेम मानीनुं मान निरर्थक बे ॥ ४ ॥
धात्रा दत्तं मानवत्यां लघुत्वं मानोन्मत्ते रावणे डुर्मतित्वम् । दर्पोत्कृष्टे को दुर्गतित्वं दुष्टान्मानात्समतिः केन लब्धा ॥ ५ ॥
- मानवतीने दैवे लघुता श्रापी तथा अहंकारथी उन्मत्त थएला रावणप्रते दुर्मतिपणुं युं, कोणिकराजाप्रते दुर्गतिपणुं श्रप्युं; एवी रीते दुष्ट एवा मानथी कोणे सुगति मेलवी बे ? ( कोइएप नथी मेलवी ) ॥ ५ ॥
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( इति मानप्रक्रमः )
( अथ मायाप्रक्रमः)
मायोत्पन्नाद विश्वासा- न्मुखामृतोऽपि मानुषः ।
परसद्मप्रवेशं च, नाप्नुयात् श्वानवत्सदा ॥ १ ॥
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प्रकरणं.
॥ ७ ॥
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अर्थ- मुखे मीष्ट वचन बोलनारो एवो पण माणस कपटथी उत्पन्न अएला अविश्वासथी, हमेशां कुमातरानी पेठे अन्यना घरमा प्रवेश करी शकतो नथी. ॥१॥
बद्मना पवितं शास्त्र, तदनाय केवलम्।हरिनस्य शिष्याणां, फलं किमुतन श्रुतम्॥२॥ | अर्थ- कपटथी जणेलु शास्त्र पण केवल अनर्थमाटेज थाय ने केमके, तेथी हरिनाचार्यमहाराजना शिष्योने अएलु फल शुं (आपणे शास्त्रोमां ) नथी सांजड्यु? ( सांनट्युज बे.) ॥२॥ | मायया यत्तपस्तप्तं, महाबलेन साधुना। स्त्रीवेदो ह्यर्जितस्तेन, जुक्तो महीनवेच सः ॥३॥ | अर्थ- वली महाबल साधुए पण कपटथी जे तपस्या करी, तेथी तेमणे स्त्रीवेद उपार्जन कर्यो, अने ते स्त्रीवेद तेमने श्री महीनाथ जिनेश्वरना जवमा जोगववो पज्यो. ॥३॥
दासीपुत्रः सुरूपः कपिल इति नरैवंद्यमानोऽपि दारे, __ रुक्त्वा त्यक्तश्च धिक्त्वां पटुनरवचनैनिद्यमानः समंतात् । मायाया हेतुरत्र नव सुगुणनिधे नव्य मायाविरक्तो
__माया संसारमूलं प्रणिजगरिति स्वस्तिकारा जिनेंडाः ॥ ४॥ अर्थ- खोकोथी नमस्कार करातो तथा उत्तम रूपवालो एवो पण कपिल " तुंदासीपुत्र" माटे तने धिकार जे एम कहीने शुं स्त्रीए तेने तज्यो नहीं? (पण तज्योज) तथा ते पंडितलोकोना वचनोथी चारे
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हिंगुल. बाजुथी निंदापात्र अयो, अहीं तेम श्रवामां हेतुभूत मायाज हती; माटे हे उत्तम गुणोना जंडारसरखा प्रकरणं.
लव्य माणस! तुं मायाथी ( कपटथी ) विरक्त था ? केमके, माया ले ते संसार- मूल जे; एम कट्याणकारी
श्री जिनेश्वर प्रनुए कहेलुं . ॥४॥ ॥ ॥
(इति मायाप्रक्रमः)
(अथ लोभप्रक्रमः) स्थले चरेच्च बोहित्य, शिलायामुदयेत्कजम् ।
लनेत्कं मृगतष्णात-स्तदा हि लोजतः सुखम् ॥ १॥ IN अर्थ- जो स्थलपर वहाण चाले, पत्थरपर कमल उगे, तथा फांऊवाना पाणीमांथी जो पाणी मले, ला तो लोजश्री सुख मले. ॥१॥
सोऽनिष्टोऽथवा लोजो, योलोजस्त्वनिष्टकः ।
दशेच्च मर्दितः सों, लोजो दशति सर्वदा ॥२॥ MI अर्थ- सर्प सुखदाइ के लोन मुःखदाई (एम जो सवाल पुउवामां आवे तो) तेउ बन्नेमांथी लोन || all
मुःखदाइ ; केमके, सर्पने तो जो मईन करवामां आवे तोज मंखे , पण खोजतो हमेशां मंखे . ॥२॥||||
॥७॥
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समुनस्यैव कझोला-त्कबोलो वर्धते यथा।
तहानाच लोनोऽपि, मम्मणवणिजो यथा ॥३॥ अर्थ- जेम समुना मोजांथी मोजुवधे जे, तेममम्मण वणिकनी पेठे लानथी लोन पण वृद्धिपामे ले. ३ गणयेन्नापशब्दं च, पितरं भ्रातरं सुतम्।अपवादं नयं मृत्योर्लोजी यथा च मद्यपः॥४॥ ___ अर्थ- मदिरापान करनारनी पेठे लोली माणस अपशब्दने, पिताने, नाइने, पुत्रने, अपवादने, तथा NI मृत्युना नयने पण गणकारतो नथी.॥४॥
नानाकर्मविपाकपाकवसतां हा नारकाणां नवे,
मानाऽमानविचारमुक्तमनसां कामं तिरश्चां पुनः। मृत्यानां शुनधर्मकर्मधरतां देवार्चनं कुर्वतां,
लेखानां खलु उर्जयो हि सततं लोनो जगठ्यापकः ॥ ५॥ अर्थ- हा! नाना प्रकारनां कर्मोना विपाकरूपी पाकमां वसता एवा नारकीउना नवमां, तथा मान अमानना विचारथी रहित , मन जेमनां एवा तिर्यंचोना नवमां, तथा शुन्नधर्मकार्योने धारण करता एवा|| मनुष्योना नवमां, अने देवपूजा करता एवा देवोना नवमां पण, जगतने व्यापीने रहेलो एवो लोन खरे| खर हमेशां दुःखें करीने जीताय तेवो . ॥५॥
(इति लोजप्रक्रमः)
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हिंगुख
जाप्रकरणं.
॥ ए
(अथ रागप्रक्रमः) मुच्यतेशृंखलाबद्धो,नाडीबद्धोऽपि मुच्यते।न मुच्यते कथमपि,प्रेम्णा बद्धो निरर्गलः॥१॥
अर्थ- सांकखथी बंधाएलो प्राणी पण मुकाय बे, तेम दोरडांथी बंधाएलो प्राणी पण बुटो अश् शके || ल, पण प्रेमथी बंधाएलो प्राणी कोइ पण रीते मुक्त अश् शकतो नथी. ॥१॥ all जर्तुविरहतोनार्यः, प्रविशंत्यनलांतरे। स्वेछया च सहर्षेण, तत्र प्रेमप्रपंचकः ॥२॥ IN अर्थ- ( पोताना ) जरिना विरहथी स्त्री पोतानी इलाथी हर्षसहित जे अग्निमां प्रवेश करे । लातेमां पण प्रेमनोज प्रपंच .॥२॥
मनस्तत्र वचस्तत्र, जीवस्तत्रैव संवसेत्। नेत्रावलोकनं तत्र, रागो यत्रोपतिष्ठते॥३॥ | अर्थ- ज्यां राग रहेलो डे, त्यांज मन, वचन अने जीव वसी रहे , तथा आंखोनुं जोवापणुं पण | त्यांज होय . ॥३॥
रागिणि गुणतां पश्ये-जैगुण्यं हि विरक्तके। रागीगुणावगुणंच,नपरीक्षति कर्दिचित् ॥४॥al॥ए॥ व अर्थ- रागी माणस रागीप्रते गुणपणाने जुवे, तथा विरक्तपते अवगुणपणाने जुए, एवी रीते रागी मा
णास कोइपण दिवसे गुण अवगुणनी परीक्षा करतो नथी. ॥४॥
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पयः पोतो नीरे तरति तपनः शीतकिरणं, दधात्येवं नित्यं किमु कुमुदबंधुःखरकरम् ।।दा धरत्युर्वी गुर्वी कथमपिच नारेण नमति, तथा तीव्र रागे कनकरथवळं जवति जो ॥५॥ । अर्थ- लोखमनुं वाहाण (आगबोट) पाणीमां शामाटे तरे बे ? सूर्य चंजने शामाटे धारण करे ? तथा| मोटी एवी पृथ्वी नारथी शामाटे नमे बे.? तेवी रीते तीव्रराग होते ते कनकरथनी पेठे शुं सुख थाय ? ५
(इति रागप्रक्रमः)
(अथ द्वेषप्रक्रमः) यस्माच्च बध्यते कर्म, तपस्यतोन मुचते।तत्प्राणिनामितिज्ञात्वा,त्याज्यो द्वेषोबुधैः स चर al अर्थ- जे पेषयी प्राणीने कर्म बंधाय ने, तथा तपस्या तपतां उतां पण जेथी प्राणीनो मोक्ष श्रतो || || नश्री; एम जाणीने ते घेषने पंडितोए तजवो. ॥१॥
स्वकीयं परकीयंच, षाजनं सदाजनाः। विध्येरन् वाक्यशक्ष्यैश्च, बब्बुलकंटका यथा ||५|| __ अर्थ- माणसो घेषथी बावखना कांटाऊनी पेठे हमेशां पोताना अने पारका माणसने पण वचनोरूपी || शट्योथी वीधे . ॥२॥ येषु यावच्च रागोऽनूत, तेषु तावच्च सगुणाः। द्वेषोत्पन्नेषु तेष्वेव, दोषं पश्येहि केवलम् ॥३॥
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हिंगुल
॥ १० ॥
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- जे माणसोमां ज्यांसुधी राग होय, त्यांसुधी तेर्जमा सगुणोने जुए बे; अने तेज॑मांज ज्यारे द्वेष थाय, त्यारे केवल ते दूषणज जुए बे. ॥ ३ ॥
द्वेषिणां ज्वरिणां लोके द्वयोः साम्या प्रतिक्रिया | क्रूरत्वं कटुकत्वं च, बहिरंतोऽपि तापवान्
अर्थ- देषी माणस ने तापवाला माणसनी तुझ्य प्रकृति होय बे; केमके, देषिमां जेम क्रूरपणुं तेम तावमां कटुकपणं होय बे; तथा बहारथी ने अंतरंगथी पण ते तापवाला होय बे ॥ ४ ॥
श्री पायनतापसेन महती प्रज्ज्वालिता द्वारिका द्वेषादेव च वर्धमाननगरे श्रीशूलपाणिरभूत्
tional
मायेन विमोचिता च सहसा लोकाश्च दुःखीकृताः ।
तस्मात्सोऽविमुच्यतामिति जिनैर्व्याख्यायि संघेनघे ॥ ५ ॥
अर्थ- द्वेषथी दीपायन नामना तापसे महान् घारिका नामनी नगरीने वाली नाखी, तथा वर्धमान नामना नगरमां जे शूलपाणी यह थयो, के जेणे तुरत त्यां मरकी चलावीने लोकोने दुःखी कर्या; माटे ते | द्वेषने तजवो; एम श्री जिनेश्वर प्रजुए निष्पापि एवा संघनी समक्ष कहेलुं बे. ॥ ९ ॥
( इति द्वेषप्रक्रमः )
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प्रकरणं.
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। अथ कलह प्रक्रमः) अग्निःसूते यथा धूम,धूमः सूतेऽसितद्युतिम्।अन्यायोऽपयशःसूते,तछत्क्लेशश्चकिदिवषम् । | अर्थ- अग्नि जेम धुंवाडाने, धुंवाडो जेम श्यामकांतिने, तथा अन्याय जेम अपजशने उत्पन्न करे ,al तेम क्वेश कुःखने उत्पन्न करे . ॥१॥
स्तोकोऽप्यग्निर्दहत्येव, काष्टादिप्रभृतं धनम्। क्लेशलेशोऽत्र तच्च, वृद्धितस्तनुदाहकः॥२॥ IMI अर्थ- श्रोमो पण अग्नि जेम घणां काष्ट श्रादिकने बालेज , तेम क्लेशनो लेशमात्र पण वृद्धि पामीने |
शरीरने बाले बे.॥२॥ कलंकेन यथा चंडः, दारेण लवणांबुधिः। कलहेन तथा जाति, ज्ञानवानपि मानवः ॥३॥ | अर्थ- कलंकथी जेम चंद्र, तथा खारथी जेम लवण समुञ, तेवी रीते ज्ञानी एवो पण माणस कलहथी शोले जे. ॥३॥
आत्मानं तापयेन्नित्यं, तापयेच्च परानपि।उनयोःखकक्लेशो, यथोष्णरेणुका वितौ ॥४॥ ___ अर्थ- आ पृथ्वीमां नष्ण थएली रेतीनी पेठे क्वेश ने ते पोताने अने परने पण हमेशां ताप आपे । अने एवीरीते क्वेश बन्नेने मुःख करनारो ॥४॥
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हिंगुल.
प्रकरणं.
॥
संग्रामतोऽनेन सुखं ह्यवाप्तमितिश्रुतं केन न दृष्टमुर्त्यां ।
कंसेन सा जीवजसाशु लेने या युग्मवंशयकारिणी च ॥५॥ || अर्थ-संग्राम करवायी था श्रमक माणसने सख मध्यं; एवीरीते सुनीयामां कोणे सांजदयं अथवा तुं ? कोइए पण नहीं. केमके, कंसे जीवजसाने तुरत मेलवी अने ते बन्ने वंशने नाश करनारी थ॥५॥
(इति कलहप्रक्रमः)
(अथाभ्याख्यानप्रक्रमः) काचकामलदोषेण,पश्येन्नेत्रे विपर्ययम्।अन्याख्यानं वदेजीह्वा,तत्र रोगःक उच्यते॥१॥
अर्थ- माणस काचकामल नामना दोषथी नेत्रमा विपरीतपणुं जुए जे; पण जीन जे अन्याख्यान |बोले , तेमां कयो रोग कहेवाय बे ? ॥१॥ यथाऽनदयं न जदयेत,द्वादशव्रतधारिनिःश्रन्याख्यानं न चोच्येत,तथा कस्यापि पंमितैः अर्थ- जेम बार व्रतधारी अन्नदय वस्तु खाता नथी; तेमपंडितो कोईनु अन्याख्यान बोलता नश्री. २ अग्निःस्तोकाइछिमायाति योगात् ताकिं क्लेशलेशःप्रयाति।
अन्याख्यानात् स्तोकतः कर्म वृझिं प्राप्नोत्येवं कष्टतः सा न याति ॥३॥
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- मन थोडा योगथी वृद्धि पामे बे, तेम क्लेशनो लेश पण वृद्धि पामे बे; श्रने थोडा - च्याख्यानथी कर्म वृद्धि पामे बे; अने ते कर्मोनी वृद्धि एवी रीते कष्टथी पण जाती नथी. ॥३॥ देवेषु किल्बिषो देवो, ग्रहेषु च शनैश्चरः ॥
श्रभ्याख्यानं तथा कर्म, सर्व कर्मसु गर्हितम् ॥ ४ ॥
- जेम देवोमां किल्बिष देव, तथा ग्रहोमां शनिश्चर, तेम अन्याख्यान सर्व कर्मोमां निंदनिक बे ॥ ४॥ देवैश्चंपाद्वारमुद्घाटितं तत् सौनद्रायाः शीलमाहात्म्यमेव ।
मिथ्यात्वन्याः दुर्गतित्वं हि तस्याः श्वश्वा श्रन्याख्यानमेवात्र हेतुः ॥ ५ ॥ अर्थ- देवोए चंपा नगरीनुं घार उघाड्युं; तेमां हेतुजूत सुनप्रानुं शीलनुं माहात्म्यज हतुं; तथा तेनी मिथ्यात्व सासुनुं जे दुर्गतिपणुं श्रयुं; तेमां फक्त अन्याख्यानज हेतुभूत हतुं ॥ ५ ॥
( इति श्रन्याख्यानप्रक्रमः )
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( अथ पैशून्यप्रक्रमः )
अदाता च यथा लोके, वरो निःस्वो धनी न च । मूको वरं न वाक्दक्षः, पैशून्यं यदि तिष्ठति ॥ १ ॥
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हिंगुल. अर्थ- जेम मुनीयामां निर्धन सारो बे, पण नहीं दान आपनार एवो धनवान सारो नथी, तेम मुंगो |||| प्रकरणं.
माणस सारो बे, पण जे चुगलीने धारण करे , एवो वाचाल माणस पण सारो नश्री. ॥१॥ ॥१२॥ दानशीलतपोजावै-रस्यैधते वृषोनुवि।यस्य मनोवचःकायैः,पैशून्यं नानिसंश्रयेत् ॥२॥ || अर्थ- जे माणसने मन, वचन अने कायाथी चुगली आश्रय करीने रहेली नश्री, तेनो धर्म दान, "\||
शील, तप अने लावधी उनीयामा वृद्धि पामे . ॥२॥
अन्यस्य तापनाद्यर्थ, पैशून्यं क्रियते जनःस्वात्मा हि तप्यते तेन, यजुत्तं स्यात्फलं च तत्३ । __ अर्थ- बीजाने खेद आपवामाटे माणसो जे चुगली करे , तेथी उलटो पोतानो आत्मा खेद पामे . || केमके, जेवू वाव्युं होय तेवं फल मले बे. ॥ ३॥
दानं च विफलं नित्यं, शौर्यं तस्य निरर्थकम् ।
पैशून्यं केवलं चित्ते, वसेद्यस्याऽयशो नुवि ॥४॥ अर्थ- जेना मनमां केवल चुगलीज रहेली ने, तेनुं दान हमेशां निष्फल जाय , तथा तेनुपराक्रम पण निष्फल श्राय बे, अने तेनो अपजश पृथ्वीमा ( विस्तार पामे बे.)॥४॥
(इति पैशून्यप्रक्रमः)
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(अथ रत्यरतिप्रक्रमः) न विद्यतेरतिःप्राज्ञै, न विद्यतारतिःपुनः। कर्माधीनं च सर्वं स्या-ततस्तामढपतांकुरु॥१॥ | अर्थ- माह्या माणसो रति तेम अरतिने गणकारता नथी, केमके, सघलुं कर्मोने आधिन , माटे ते । जति अरतिने अटप करो? ॥१॥
श्रादौ रागस्ततो वेष-स्तस्माक्वेशपरंपरा ।
तहदादौ रतिश्चार-तिस्ततः कर्मबंधनम् ॥२॥ अर्थ- जेम पेहेला राग अने तेथी देष, तथा तेथी क्लेशनी परंपरा श्राय , तेम पेहेला रति, तेथी। अरति, अने तेथी कर्मबंधन श्राय जे.॥२॥ वरं बाया वरं वायु-वरं पुत्रो वरं धनम् । वरं बंधुर्वरं जाये-त्या दिरत्युञ्जवं वचः ॥३॥
अर्थ- बाया उत्तम , वायु उत्तम बे, पुत्र उत्तम वे, धन उत्तम , बंधु उत्तम , तथा स्त्री उ|त्तम ने इत्यादिक वचन रतिथी उत्पन्न भएलु जाणवू ॥३॥ उष्णा बायाधनं स्तोकं, वायुद्भूतादिसंयुतः।कुपुत्रः कुलटा रामे-त्याद्यरत्युम्नवं वचः॥४॥
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प्रकरणं.
हिंगुल. अर्थ- गया उष्ण ने, धन श्रोहुँ , वायु खूश्रादिकवालो ने, पुत्र मुराचारी , स्त्री कुलटा चे, इत्या- दिक वचन अरतिश्री उत्पन्न भएलुं जाणवू. ॥४॥
(इति रत्यरति प्रक्रमः) ॥ १३॥
(अथ परापवाद प्रक्रमः) रजांसि दशना यत्रा-ऽधरोष्ठविक्करीयम् । मूर्खरसनापराप-वादगूथं समुधरेत् ॥१॥ | अर्थ- ज्यां दांतोरूपी रजोने, तथा होगेरूपी बन्ने वीबडी , एवी मूर्योनी जीन परना अपवादरूपी विष्ठाने उपाडे ॥१॥
वक्तुं नैव क्षमा जीह्वा,यदि मूकस्य तघरम्। परं परापवादं च, जंजप्यतेन तकरम् ॥२॥ Kल अर्थ- जोके मुंगा माणसनी जीन बोलवाने शक्तिवान थती नथी, तोपण ते श्रेष्ठ बे, पण जे जीन प
रना अपवाद बोले , ते उत्तम नश्री. ॥२॥ IN वक्तुं परापवादेन, स्वस्य यत्समलं कृतम् । तच्च केनाप्युपायेन, कर्तुनाईति निर्मलम् ॥३॥ __ अर्थ- परना अपवादथी पोतानुं जे मुख मलीनतावालुं श्रएलुंचे, तेने कोइपण उपायथी निर्मल करी शकातुं नथी. ॥३॥ एके चजातिचंडालाः, कर्म चंडाल निंदकः, ज्ञात्वेति हृदयेसम्यक्, परापवादमात्यजेत् ५
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IN अर्थ- आ उनियामां केटलाक तो जातिचंडालो , पण निंदा करनारा तो कर्मचंकालो ; एम | सारीरीते हृदयमां जाणीने परना अपवादनो त्याग करवो. ॥४॥
(इति परापवाद प्रक्रमः)
(अथ मायामृषा प्रक्रमः) मनस्यन्यचस्यन्यत्, मायामृषा च सोच्यते। कदापि सुखदा नस्या-विश्वे यथा पणांगना
अर्थ- मनमां कई अने वचनमा कं, तेने " मायामृषा" कहेवाय जे; माटे जगतमा जेम वेश्या स्त्री तेम ते कदापी पण सुख करनार नथी.॥१॥ | फलं यथें वारुण्याः, कटु मायामृषावचः। अंतरंगधिया श्रेयस्करं न स्याद्यतोऽत्र च ॥२॥
अर्थ- जेम इंवारुणी नामनी वेलडीनुं फल कडवू बे; तेवं मायामृषा वचन कडवु ने; माटे अंतरंग बुद्धिथी आ ऽनियामां ते कट्याणकारी होतुं नश्री. ॥२॥ खड्गधारां मधुलिप्तां, विछि मायामृषांततः।वर्जनीया प्रयत्नेन, विपुषा शिववांबता॥ ३ ॥
अर्थ- मायामृषावादने मधथी खीपाएली खजधारा सरखं जाणवू; तेथी कट्याणने श्छता एवा पंडितोए प्रयत्नपूर्वक तेनो त्याग करवो. ॥३॥ मुग्धप्रतारणाद्यर्थ, मायामृषां वदेन्न च । पूर्व सुधानिनासा च, यतोऽते तत्फलं कटु ॥
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हिंगुल. अर्थ- जोला माणसने ठगवा आदिक माटे मायामृषावाद बोलवू नहीं; केमके, पेहेला तो ते अमृत स-IIN||प्रकरणं.
लर लागे , पण परिणामे तेनुं फल कमवू . ॥४॥ ॥१४॥
(इति मायामृषावाद प्रक्रमः )
(अथ मिथ्यात्वशल्य प्रक्रमः) शत्रुनिनिहितं शस्त्रं, शरीरे जगति नृणाम्।यथा व्यथां करोत्येव, तथा मिथ्यात्वमात्मनः
अर्थ- शत्रुए शरीरपर फेंकेलं शस्त्र जेम आ जगतमां माणसोने मुःख आपे चे, तेम मिथ्यात्वशट्य | आत्माने सुःख आपे . ॥१॥ पुर्वचनं पराधीनं, शरीरे कष्टकारकम् । शल्यं शव्यतरं तस्मात्, मिथ्यात्वशल्यमात्मनिश __ अर्थ- शत्यसरखं कुवचन अने पराधिनपणुं जेम शरीरने कष्टकारक , तेथी पण वधारे शट्यरूप एवं मिथ्यात्व आत्माने कष्टकारक . ॥५॥ स्वाध्यायेन गुरोर्नक्त्या, दीक्षया तपसा तथा ।
॥ १४॥ येन केनोद्यमेनैव, मिथ्यात्वशल्यमुकरेत् ॥३॥ IN अर्थ- सज्काय ध्यानश्री, गुरुनी नक्तिथी, दीदाथी तथा तपथी, एवी रीते गमे ते उद्यमश्री मिथ्या
त्वरूपी शट्यनो उधार करवो. ॥३॥
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मिथ्यात्वशल्यमुन्मूख्य, स्वात्मानं निर्मलीकुरु।
यथाऽजस्रं सुसिंदूर-रजसाजुवि दर्पणः ॥४। अर्थ- हे नव्यप्राणी ! तुं मिथ्यात्वरूपी शट्यने मूलमाथी उखेडीने तारा पोताना आत्माने निर्मल कर? कोनी पेठे ? तोके हमेशां सिंदूरनी रजथी मुनीयामां जेम दर्पण (अरिसो) निर्मल थाय ने तेम. ॥४॥
(इति मिथ्यात्व शट्य प्रक्रमः )
(अथ द्यूतव्यसन प्रक्रमः) न च स्याद् मोहतःप्रेम, परस्त्री लंपटाद्यशः ।
दयया रहितो धर्मो, यथा द्यूताइनं तथा ॥१॥ अर्थ- जेम जोहथी प्रीति थती नथी, परस्त्रीना लंपटपणाश्री यश श्रतो नश्री, तथा दयाविना जेम धर्म अतो नश्री, तेम जुगारश्री धन श्रतुं नश्री. ॥ १॥ द्यूतस्य व्यसनं त्याज्यं, नरेण शुजवांबता। हगद्यदि न मुच्येत, तदा क्लेशपरंपरा ॥२॥
अर्थ- कट्याणने श्वनारा माणसोए जुगारना व्यसननो त्याग करवो; अने कदाच जो हठश्री तेनो , त्याग करवामां न आवे, तो क्लेशोनी श्रेणि थाय . ॥२॥
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हिंगुल.
प्रकरणं.
॥२५॥
खन्नेत शं पराधीनात्, तत्वबुकिं तु मद्यपात् ।
___ यदा प्रमादतो ज्ञानं, नवेद् द्यूतानं तदा ॥३॥ अर्थ- जो पराधीनपणाथी सुख मले, मदिरापान करनार माणस पासेथी तत्वनी बुद्धिमले, तथा प्रमा-1 दथी जो ज्ञान मले, तो जुगारथी धन मले.॥३॥
न यंत्रसाध्यं न च तंत्रसाध्यं, न मंत्रसाध्यं न च मंत्रिसाध्यम् ।
एवंविधं यूतमतः प्रमोच्यं, नो चेत्त्यजेत्पांडववन्नवेच्च ॥४॥ अर्थ- जुगारने यंत्रथी पण साधी शकातो नश्री, तंत्रथी साधी शकातो नथी, मंत्रथी साधी शकातो नथी, तथा मंत्रीथी पण साधी शकातो नथी; माटे एवी रीतना जुगारनो त्याग करवो; अने जो तेनो त्याग करवामां न आवे, तो ते पांडवोनी पेठे मुःखदाइ निवडे जे. ॥ ४॥
द्यूतानसेनापि च राज्यनारममोचि अव्यं नृपकोटिनिश्च ।
श्रीमूलदेवप्रमुखैस्तथेह लन्नेत को द्यूतत एव घुम्नम् ॥ ५॥ अर्थ- जुगारथी नलराजाने राज्यनारनो त्याग करवो पड्यो, तथा श्री मूलदेव श्रादिक क्रोमोगमे रा
॥१५॥
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जाउने व्यनो त्याग करवो पड्यो ने माटे श्रा मुनीयमा कयो माणस जुगारथी धनने मेलवी शके ? IN||(अर्थात् कोइ पण न मेखवी शके.)॥५॥
(इति द्यूतव्यसन प्रक्रमः)
(अथ मांसव्यसन प्रक्रमः) मांसादनात्प्रणश्यंति, देहश्रीः सुमतिः सुखम्।
__ शोचं सत्यं यशः पुण्यं, श्रद्धाविश्वाससमतिः ॥१॥ अर्थ- मांस भक्षण करवाश्री शरीरनी शोला, उत्तम बुद्धि, सुख, पवित्रता, सत्य, यश, पुण्य, श्रद्धा, विश्वास तथा उत्तम गति नाश पामे ॥१॥
मांसादनाजानानां हि, जायते विन्रमो ध्रुवम् ।
. निर्दयत्वमशौच्यं च, उर्धीःखपरंपरा ॥२॥ अर्थ- वली मांसजक्षणश्री माणसोने खरेखर विन्रम, निर्दयपणुं, अपवित्रपणु, मुर्बुधि तथा दुःखोनी |श्रेणि थाय .॥२॥
प्रपश्यंति पशून् यत्र, मनस्तत्र प्रवर्तते।रागता मांसपुष्टे स्या,दुर्बलत्वे विरागता ॥३॥ KI अर्थ- वली मांसलुब्ध माणस ज्यां पशुने जुए चे, त्यां तेनुं मन प्रवर्ते , वली जे पशु मांसश्री पुष्ट
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हिंगुल
॥१६॥
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एलुं होय तेनापर तेनो राग बंधाय बे; तथा जे पशु दुर्बल होय तेना प्रते तेने विरागपणुं थाय बे ॥३॥ | पापकर्मघटे पूर्णे, रौद्रध्यानवशं गते । मांसजुग्मरणं प्राप्य, व्यथां सहते दुर्गतेः ॥ ४ ॥ अर्थ- मांसमक्षण करनारो माणस, तेनां पापकर्मोनो घडो जराते बते रौषध्यानने वश श्रयो को मृत्यु पामीने नरकनी वेदना सहन करे बे. ॥ ४ ॥
सा रेवती या नरके प्रविष्टा मांसादनाङ्गीम कुकर्मकर्त्री ।
श्री श्रेणिकेनापि पलाशनाच्च प्राप्ता हि पीडा नरकस्य तीव्रा ॥ ५ ॥ - जयंकर कुकर्म करनारी ते प्रसिद्ध रेवतीने मांसनाथी नरकमां प्रवेश करवो पढ्यो अने श्री श्रेणिक राजाए पण मांसनाथी नरकनी जयंकर पीडा मेलवी ॥ ५ ॥
( इति मांसव्यसन प्रक्रमः )
( अथ मदिरापान व्यसन प्रक्रमः )
पारवश्यमशुचित्वं, विकलत्वमचेष्टता ।
निर्दयत्वं जवेत्तस्मात्, सुरापानं विवर्जयेत् ॥ १ ॥
अर्थ- मदिरापानथी परवशपणुं, अपवित्रपणुं, विकलपणुं निश्चेष्टपणं, तथा निर्दयपणुं श्राय बे, माटे मदिरापननो त्याग करवो. ॥ १ ॥
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॥ १६ ॥
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शैथिल्यं विग्रहे वस्त्रे, नेत्रयुग्मे मदांधता ।
पतनं यत्र तत्रापि, मद्यं पिबेत्ततो न च ॥ २॥
- वली मद्यपान करवायी शरीरमां ने वस्त्रमां पण शिथिलता थाय बे, बन्ने नेत्रोमां मदांधपणुं थाय बे, तथा ज्यां त्यां पडवापणुं थाय बे, माटे मदिरापान करवुं नहीं. ॥ २ ॥
संततिर्नास्ति वंध्यायाः, कृपणस्य यशो न हि ।
कातरस्य जयो नैव, मद्यपस्य न सङ्गतिः ॥
॥
अर्थ- जे वंध्या स्त्रीने संतति होती नथी, कृपणने यश होतो नथी, बाकणने जीत मलती नथी, तेम मदिरापान करनार माणसने उत्तम गति मली शकती नथी. ॥ ३॥
यस्याधव माधववासुदेवः, सुवर्णदुर्गा धनदेवदत्ता ।
सा द्वारिका प्रज्वलिता च नूनं तत्रापि हेतुः किल मद्यपानम् ॥ ४ ॥ अर्थ- जे पारिका नगरीना स्वामी श्री कृष्म वासुदेव हता, तथा जेने सुवर्णनो गढ हतो, तथा जेने | कुबेरे आपी हती, ते घारिका जे खरेखर बली गई, तेमां पण मद्यपानज हेतुभूत हतुं ॥ ४ ॥
( इति मदिरापान व्यसन प्रक्रमः )
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हिंगुल
॥ १७ ॥
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( अथ वेश्याव्यसन प्रक्रमः )
कुष्टा निनूतमृत्यानां मन्येतानं गतुल्यताम् । द्रव्यार्थं न च स्नेहार्थं, गणिका सुखदान सा अर्थ- जे वेश्या स्त्री स्नेहने माटे नहीं, पण फक्त धव्यने माटे कोढथी पराजव पामेला माणसोने प कामदेव समान माने बे, माटे तेवी वेश्या सुखदा नथी. ॥ १ ॥
लोनार्थिनी निर्लज्ञा च, पापिष्टा पापकुंडिका ।
विचुंबिताच निःस्नेहा, कथं सेव्या पणांगना ॥ २ ॥
अर्थ - फक्त लोजनाज प्रयोजनवाली, लगा विनानी, पापिष्ट, पापोना कुंडसरखी, विट्पुरुषोथी चुंब - नकराएली, तथा स्नेह विनानी एवी वेश्या स्त्रीने शा माटे सेववी जोइयें ? ॥ २ ॥ | सा कंठा श्लेषमाधत्ते, परं प्रीतिविवर्जिता । तेनाऽङ्गास्तत्र बध्यन्ते, यथा सिंहाश्च पंजरे ॥३॥ अर्थ - ते कंठने आलिंगन तो करे बे, पण ते प्रेमविनानी होय बे, माटे अज्ञानी माणसो, पांजरामां जेम सिंह तेम तेलीनी साथे ( प्रीतिथी ) बंधाय बे. ॥ ३ ॥ वेश्यासंगाच्च सप्तैव, नश्यंत्यं गच्छ विर्यशः । लता च संततिः सिद्धि, द्रव्यं च गृहगांगना ॥१४॥ अर्थ- वेश्याना संगथी नीचे जणावेली सात वस्तुर्जनो नाश थाय बे, शरीरनी कांति, यश, लका, संतति, सिद्धि, धन, तथा घरनी स्त्रीनो नाश थाय बे. ॥ ४ ॥
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प्रकरणं
॥ १७ ॥
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कदापि वेश्या न गुणार्थिनी स्या, पार्थिनी नैव हितार्थिनीच । विद्यार्थिनी नापि न मन्यसे चेद्वार्तां शृणु त्वं कयवन्नकस्य ॥ ५ ॥
- वेश्या स्त्री कदापि पण गुणोनी, रूपनी, हितनी के विद्यानी अर्थिनी ( प्रयोजनवाली ) होती नथी, तथा हे जव्य प्राणी ! जो तुं ते वात न मानतो हो तो तुं कयवन्नकनी कथा सांजल ? ॥ ५ ॥ ( इति वेश्याव्यसन प्रक्रमः )
( अथ आखेट व्यसन प्रक्रमः )
धूपात्प्रस्विन्नदेहश्च, ह्यव्यते वनगारे । श्राखेटे किं सुखं तत्र, पापरूपे निजात्मनः ॥ १ ॥
अर्थ- जे शिकारगाहमां तापथी शरीरपर पसीनो थाय बे, तथा जयंकर वनमां जमवुं पडे बे, एवा पापरूप शिकारमां पोताना आत्माने ते शुं सुख मलतुं होशे ? ॥ १ ॥
| पुनः पुनः प्रपच्येत, परजवे नरकावनौ । सततं रुधिरा लिप्त - करेणाखेटकारिणा ॥ २ ॥
अर्थ- हमेशां रुधिरश्री लेपाएल बे हाथ जेना एवो शिकार करनारो माणस परजवमां नरकमां जश्ने वारंवार पकावाय बे, ( अर्थात् त्यां जश्ने ते अत्यंत दुःख पामे बे.) ॥ २ ॥ आखेटकेषु विध्येरन् प्राणिनः प्राणिनोऽत्र ये । नरके तेऽप्यनुविध्येरन्, परत्रेत्यवद निः
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हिंगुल
॥ १८ ॥
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अर्थ- जे प्राणी जगतमां शिकारगाहोमां प्राणीने बींधे बे, ते परजवमां नरकमां जश्ने वींधाय बे; एवी रीते श्री जिनेश्वर प्रभु कहे बे. ॥ ३॥
श्वद्वाराणि पंचैव, द्रोहो हत्या तथा जुवि । मांसादनं गुरोर्निदा, तथा खेटकपातकम् ॥४॥
अर्थ- जगतमां नरके जवानां पांच घारो कहेलां बे; प्रोह ( परनी ईर्षा ) हत्या एटले जीवोनी हिंसा, मांसनोजन, गुरुनी निंदा तथा शिकारथी थएलुं पाप ए पांचे नरकनां धारो बे. ॥ ४ ॥
आखेटकं चेद्यदि न त्यजेच्च, परत्र बंधादिक दुःखरा शिम् ।
सदेत चास्मिन् परमापदं हि यथाऽजपुत्रो रघुवंशजातः ॥ ५ ॥
अर्थ- हे प्राणी ! कोइ पण माणस, परलोकमां जेमां बंधन आदिक दुःखोनो समूह नर्यो पड्यो बे, एवा शिकारने जो नथी तजतो तो ते रघुवंशमां उत्पन्न थला " छाज पुत्रनी पेठे या लोकमां पण अत्यंत पदाने सहन करे बे. ॥ ५ ॥
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( इति खेटव्य सन प्रक्रमः )
( अथ चौर्य व्यसन प्रक्रमः )
चौर्यकर्ता चौरमंत्री, स्थानदचौर रक्षकः । चौरेण सह व्यापारी, चौरः पंचविधः स्मृतः १
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प्रकरणं.
॥ १८ ॥
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अर्थ - चोरी करनार, चोरनी साथे गुप्त वात करनार, चोरने रहेवानु स्थानक आपनार, चोरोनुं रक्षण | करनार तथा चोरोनी साथे व्यापार करनार, एवी रीते पांच प्रकारनां चोरो कहेला बे. ॥ १ ॥ निर्दयः खरवाक् क्रूरः, शोधृष्टश्च निर्भयः। निर्दाक्षिण्यः क्रूरकर्मा, चौरस्याष्टौ गुणाः स्मृताः दयाविनानो, कठोर वचनो वोलनारो, क्रूर, लुच्चाइवालो, धीव, जयविनानो, दाक्षिणता विनानो तथा क्रूर कार्यो करनारो, एवी रीतनां आठ प्रकारना गुणो (दुषणो ) चोरना कहेला बे. ॥ २ ॥ चौरस्य पंच चिन्हानि, चमद्दृग् चंचलाननः ।
वस्त्वासक्तमना व्यग्र, इतस्ततो निरीक्षणम् ॥ ३ ॥
अर्थ- चोरना नीचे प्रमाणे पांच चिन्हो जाएवां; ते भ्रमयुक्त दृष्टिवालो, चंचल मुखवालो, वस्तुर्जमां श्रासक्त मनवालो, व्यग्र तथा श्राम तेम जोनारो होय . ॥ ३ ॥
जयं जिक्षा वधो दमः श्रृंखलापदबंधनम् । शूलिकारोपणं मृत्युः, फलानि चौरकर्मणः॥ ४ ॥ अर्थ - जय, निक्षा, वध, दंड, सांकलथी यतुं चरणबंधन, शूलिपर चडवापणुं, तथा मृत्यु एटलां चोरीनां फलो बे ॥ ५॥
ज्ञातातो विजयस्य चौर्य करणं संसारसंप्लावनं,
चान्यस्माद्वसुभूतितस्करकथां श्रुत्वा त्यज दूरतः ।
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प्रकरणं.
॥१
॥
यत्पुण्यं जज रौहिणेयक श्व प्रौढं सुखं लिप्ससे,
नोचेदुर्गतियातनाफलमिदं सुंदव स्वकर्मोदयात् ॥५॥ अर्थ- संसारमा डुबाडनारी एवी विजयनी चोरी जाणीने तथा बीजी वसुजूति चोरनी कथा सांज-IN लीने ते चोरीने हे प्राणी ! तुं दूर तज? अने जो तने उत्कृष्ट सुखनी श्ला होय, तो तुं रौहिणेय नामना चोरनी पेठे पुण्यने जज? नहींतर तारा कर्मना उदयथी तने उर्गतिर्नु मातुं फल लोगवq पडशे.॥५॥
(इति चौरप्रक्रमः)
(अथ परदारप्रक्रमः) नित्यं मनोवचःकायै, यः परस्त्रीषु लंपटः। सहते स हि फुःखं च, श्वन्त्रे तामनादिकम्॥१॥
अर्थ- जे माणस हमेशां मन, वचन अने कायाथी परस्त्रीमां लंपट थाय ने ते माणसने नरकमां ताडन |
आदिकनुं दु:ख सहन करवू पडे बे. ॥१॥ करणे फलेच्च वृक्षश्चेत्, सुयशः स्यात्कुकर्मणः।कुवाक्याचं बजते य-त्तदा पर स्त्रियः सुखम्॥२॥ al अर्थ- जो रेतीना रणमां वृक्ष फलप थाय, कुकर्मथी उत्तम यश थाय, तथा कुवचनथी जो सुख मले, तोज परस्त्री सेवनथी सुख मले. ॥२॥
धनुः कराऽस्पृक्च, न वशः पवनो यथा। तथा उर्गाह्यमेव स्यात् ,परस्त्रीहृदयं सदा ॥३॥
॥१
॥
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अर्थ- जेम इंजना धनुष्यने हाथथी स्पर्श करातो नथी, तथा पवनने जेम वश करी शकातो नथी, तेम परस्त्रीनु मन पण हमेशां जाणी शकातुं नथी. ॥३॥
लोके उहता ख्याता, या सार्धसप्तवार्षिकी।
परस्त्री सैव विज्ञेया, यतः प्राप्नोति चापदम् ॥४॥ अर्थ- बुनीयामां जे साडासात वर्षनी पनोती प्रख्यात ने; ते श्रा परस्त्रीनेज जाणवी, केमके तेथी । दुःख पाय ॥४॥
त्यजेत्सुखार्थी परदारसंगं, नोचेत्स पद्मोत्तरवङ्गवेच्च।।
मतांतरे गौतमतापसस्य, दारानुरागादजवजवेः किम् ॥५॥ अर्थ- सुखना अर्थी माणसे परस्त्रीनो संग तजवो; नहींतर पद्मोत्तर राजानी पेठे (आपदा ) श्राय ने वली अन्य दर्शनीमां पण गौतमऋषिनी स्त्रीना अनुरागश्री सूर्यनी शी दशा अश्ले? ॥ ५॥
(इति परदारप्रक्रमः)
(अथ पापप्रक्रमः) नवेयुःप्राणिनः पापा-कासश्वासज्वरादयः।सखायोऽपि कदर्याश्च,नागश्रीवन्महीतले १ ||
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प्रकरणं.
हिगुल. अर्थ- पापथी प्राणीने कास ( खांसी ) श्वास तथा ज्वर आदिक व्याधिळ थाय ने, तथा श्रा पृथ्वीमा
लातेने नागश्रीनी पेठे नीच सोबतो श्राय . ॥१॥ ॥२०॥ अमृतं कालकूटं स्या-न्मित्रंशत्रुःसुधीरधीः। सऊनो पुर्जनः पापा, हिपरीतं फलं त्विद
__ अर्थ- पापश्री अमृत केर श्राय बे, मित्र शत्रु श्राय बे, उत्तम बुधिवालो निर्बुद्धि श्राय , तथा सलाऊन पुर्जन श्राय ने, एवी रीते पापथी विपरीत फल थाय . ॥२॥
गुणश्च दोषतां याति, पापतो हृच्च शून्यताम्।
झानमझानतामेव, चमरोगादिव देहिनः॥३॥ अर्थ-ज्रमरोगथी जेम तेम पापथी प्राणीना गुणो दोषपणाने पामे बे, हृदय शून्यपणाने प्राप्त थाय ने तथा ज्ञान अज्ञानपणाने पामे .॥३॥ उष्टा रामा सुता पुष्टा, कुष्टाः परिजना जनाः।त्रातरो फुःखदातारः, पापानवंति सर्वदा __ अर्थ-पापथी हमेशां स्त्री, पुत्रो, तथा चाकरो पण मुष्ट श्राय बे; अने नाज़ हमेशां मुःख देनाराऊ श्राय जे.॥ ४॥
श्रीब्रह्मदत्तो नरचक्रवर्ती, मृत्वा गतः सोऽपि हि सप्तमी च । निर्गत्य तस्मान्नवपंकमग्न-स्तत्रापि हेतुः किल पातकस्य ॥५॥
॥२०॥
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अर्थ- ते श्री ब्रह्मदत्त चक्री मृत्यु पामीने जे सातमी नरके गयो, तथा त्याथी निकलीने ते जे संसाररूपी कादवमां मुब्यो, तेमां पण पापचेंज कारण जाणवू. ॥५॥
(इति पापप्रक्रमः)
(अथ सम्यक्त्वप्रक्रमः) उपशामिकमेकं च, परंदायोपशामिकम् । तृतीयं दायिकं तुर्य, साखादनं च वेदकम् ॥१॥NI IN अर्थ- एक उपशामिक, बीजु छायोपसामिक, त्रीजु कायिक, चोथु सास्वादन तथा पांचमुं वेदक
सम्यक्त्व जाणवू. ॥१॥
जैनधर्मे च दक्षत्वं, संस्थैर्योन्नतिजक्तयः। तीर्थसेवेति पंचापि, सम्यक्त्वजूषणानि च॥२ IN अर्थ- जैन धर्ममां दक्षता, स्थिरता, उन्नति, जक्ति, तथा तीर्घसेवा ए पांचे समकीतनां जूषणो ले॥
शंकाकांक्षाविचिकित्सा, जैनादन्यस्य संस्तुतिः।
तत्संस्तवोऽपि पंचैव, सम्यक्त्वदूषणानि च ॥३॥ al अर्थ- शंका, कंखा, विचिकित्सा, जैन शिवाय अन्यनी स्तुति, अने अन्यमतनी प्रशंसा ए पांचे सम
कीतनां दूषणो . ॥३॥
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हिंगुल.
प्रकरणं.
मूलं धर्मस्य सम्यक्त्वं, वर्गसौख्यफलप्रदम् ।
अनुक्रमेण मोदस्य, सुखदं जणितं ध्रुवम् ॥ ४ ॥ अर्थ- धर्मना मूलरूप एवं समकीत स्वर्गनां सुखरूपी फलने देनारु ने, तथा अनुक्रमे खरेखर मोदनु || सुख देनारुं कर्तुं .॥४॥
प्रबोधरत्नं हृदि यस्य नित्यं, वसेघरं तस्य यशोऽपि मह्याम् ।।
खन्नेत पूजामिह मुक्तिमये, स नृपतिः श्रेणिकवत्पृथिव्याम् ॥ ५॥ | अर्थ- जेना हृदयमां हमेशां उत्तम एवं ज्ञानरूपी रत्न वसी रह्यु , ते माणसोनो अहिं पृथ्वीमां यश थाय ने, तथा ते पूजाने मेलवे बे, अने मेवटे ते श्रेणिक राजानी पेठे मोद मेलवे बे. ॥५॥
(इति सम्यक्त्वप्रक्रमः)
(अथ पुण्यप्रक्रमः) कांतरूपं यशोलानं, विठत्वं नामिनीसुखम् ।
पूर्ण धनं सुतं पुण्यात् , प्राप्नुयात् पूर्वसंचितात् ॥१॥ अर्थ- पूर्व संचय करेला पुण्यश्री प्राणी मनोहर रूपने, यशना लानने, विधत्ताने, स्त्रीना सुखने, संपूर्ण धनने अने पुत्रने मेलवे . ॥१॥
॥११॥
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संभाव्यते ह्यसंजाव्यं, निजपुण्यप्रभावतः ।
दवत्या स्तिलके य-तेजोऽभूत् पूर्वपूण्यतः ॥ २ ॥
अर्थ- पोताना पुण्यना प्रजावथी संवित वस्तुनो पण संभव थाय छे, केमके पूर्वनां पुण्यश्री दमयं तीना तिलकमां तेज ययुं दतुं ॥ २ ॥
राजमानं धनाढ्यत्वं, सगुणाढ्य प्रियासुखम् ।
पूर्ण यशो विवेकित्वं, पुण्यडुमफलानि च ॥ ३ ॥
अर्थ- राजा तरफनुं मान, धनाढ्यपणुं, सद्गुणी स्त्रीनं सुख, संपूर्ण यश, तथा विवेकीपणुं एटलां पुण्यरूपी वृक्षोनां फलो बे ॥ ३ ॥
तीर्थंकरत्वं चक्रित्वं, वासुदेवत्वमेव च ।
लजते च नरो भूम्यां देवत्वं पूर्वपुण्यतः ॥ ४ ॥
अर्थ- पूर्वनां पुण्यश्री माणस या पृथ्वी मां तीर्थंकरपणुं, चक्रवर्तीपणुं, वासुदेवपणुं, तथा देवपणुं मेलवे वे. ४ श्रीरामचंद्रस्य महाजयोभूत्, पुण्यात्पुरा रावणसंगरे च ।
पुण्याढ्य राजा परमं प्रतापं, लेने बलं तत्र वृषस्य हेतुः ॥ ५ ॥
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प्रकरणं.
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अर्थ- पूर्वे करेलां पुण्यथी रावणना संग्राममां श्रीरामचंअजीनो महान जय थयो , तथा पुण्याढ्य राजाए उत्कृष्ट प्रताप तथा बल जे मेलव्यु , तेमां पुण्यनोज हेतु दे.॥ ५ ॥
(इति पुण्यप्रक्रमः) २॥
(अथ दानप्रक्रमः) स्याङान्म सफलं तस्य, सफलं चापि जीवितम् ।
यस्य वक्रे वसेन्नित्यं, दानमित्यदरयम् ॥१॥ अर्थ- जेना मुखमां " दान" एवा बे अक्षरो हमेशां वसी रह्या वे, तेनो जन्म तथा तेनुं जीवतर सफल २.१ IN|| कलत्रपुत्रसौख्यानि, स्वर्गस्य सुखसंपदः।पंचप्रकारजोगाश्च, प्राप्यते दानतो नरैः॥२॥
अर्थ- दानश्री माणसोने स्त्रीपुत्रना सुखो, स्वर्गनां सुखोनी संपदा, तथा पांच प्रकारना लोगो मले .॥२॥ वादशक्तिर्मंत्रशक्ति, स्तंत्रशक्तिस्तथैव च, नवेत्पुंसां परं मह्यां, दानशक्तिस्तुलना ॥३॥ | अर्थ- पुरुषोने वादशक्ति, मंत्रशक्ति तेम तंत्रशक्तिपण थाय जे, पण आ पृथ्वीमा दानशक्ति पुर्खन जे. ॥३॥ दानादिह महत्कीर्तिः, स्वर्गसौख्यं परत्र च।क्रमान्मुक्तिनवेदोके, श्रीश्रेयांसकुमारवत्
मारपत् al अर्थ- दानथी था लोकमां मोटी कीर्ति मले ने, परलोकमां स्वर्गनुं सुख मले ने, तथा अनुक्रमे श्री
श्रेयांस कुमारनी पेठे मोद मले ॥४॥
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२॥
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रूपाला अपि पुर्गपालसचिवश्रीसार्थवाहादयो,
व्याला व्याघ्रगजादयः स्थलचरा नारंमपदयादयः। नूतप्रेतपिशाचयदनिवहा थायांति वश्ये निजे,
येषां दानमनर्गलं करकजे तिष्टेदवश्यं यदि ॥५॥ अर्थ- जेऊना हस्तकमलमां अत्यंत दान रहेळु , तेजेने राजालं, कीह्याना रक्षको, प्रधानो, सार्थवाह आदिको, सर्प, वाघ तथा हाथी आदिक थलचरो, नारंड आदिक पदिऊँ, नूत, प्रेत, पिशाच, तथा यदोना समूहो पण पोताने वश थाय . ॥५॥
(इति दान प्रक्रमः)
(अथ शीलप्रक्रमः) हस्तसिर्विचःसिकिः, संपत्तस्य पदे पदे ।
श्रीसुदर्शनवद्यस्य, शीलमस्ति समुज्ज्वलम् ॥१॥ अर्थ- जेनी पासे श्रीसुदर्शन शेउनी पेठे उज्ज्वल शील रहेळु , तेने हस्तसिधि, वचनसिधि तथा पगलेपगले संपदा मले ॥१॥ कदाग्रहग्रहग्रस्ता, नारदाः क्वेशकारिणः, लेजिरे तेऽपवर्गं च, तत्र शीलस्य कारणम् ॥२॥
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हिंगुल.
प्रकरणं.
॥२३॥
अर्थ-कदाग्रहरूपी ग्रहश्री ग्रस्त भएला क्वेश करावनारा नारदो पण जे मोद पाम्या, तेमां शीलनुज कारण ने.
अग्निर्जलं द्विषन्मित्रं, तालपुटं सुधानिनम्।
सिंधुः स्थलं गिरि—मि, हेंतुः शीलस्य तत्र च ॥३॥ अर्थ- अग्नि जे जलरूप थाय ने, शत्रु मित्ररूप थाय ने, फेर अमृततुल्य थाय ने, समुज स्थलरूप थाय बे, तथा पर्वत जे मिरूप थाय ने, तेमां पण शीलनोज हेतु . ॥ ३ ॥
यन्मंत्रः सिझतां याति, तंत्रं फलति निश्चितम् ।
___ यंत्रं कार्यकरं स्याच्च, तत्र शीलविनितम् ॥४॥ अर्थ- मंत्र जे सिद्ध थाय , तंत्र निश्चयें करीने फले , तथा यंत्र जे कार्य करनारुं श्राय , तेमां पण शीलनुज माहात्म्य जाणवू ॥४॥
प्रनावती चंदनबालिका च, राजीमती धूपदराजपुत्री।
इत्यादिकानामुपसर्गहत, शीलं समाख्यायि जिनैः सजासु॥५॥ अर्थ- प्रजावती, चंदनबाला, राजीमती तथा जौपदी इत्यादिकोना उपसर्गोने हरनारुं जिनेश्वरोए सजाऊमां शीलज कह्यु.॥॥
(इति शीलप्रक्रमः)
॥३३॥
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(अथ तपप्रक्रमः) खलालयैव कुष्टोप-शमनं दर्शितं यतः।लब्धा सा तपसालब्धिः,सनत्कुमारचक्रिणा ॥१॥ IN अर्थ-जेथी पोतानी खालथीज कोढनो उपशम देखाड्यो बे, ते खब्धि सनत्कुमार चक्रिए तपथी मेलवी ने. १ |
वस्त्रं जलेन पूतं स्या-त्पुनस्तन्मलिनं नवेत्।तपसा च कृतः शुद्धो, देहो न स्यान्मलीमसः५ || अर्थ- वस्त्र जलथी पवित्र थाय बे, पण ते पाबु मलीन श्राय बे; पण तपश्री शुद्ध करेलु श
रीर मलीन अतुं नथी. ॥२॥ दानेन नच या सिकि, मंत्रतंत्रादिचिर्न च। सिध्यति तपसा सिद्धिः,श्री बाहुबलिवकिल
अर्थ-जे सिधि दानथी के मंत्रतंत्रादिकोथी पण नश्री अती, ते सिद्धि श्री बाहुबलिनी पेठे खरेखर तपस्याथी सिद्ध थाय जे. ॥३॥
तपसा दीयते कर्म, केवली कर्मणः क्षयात्। वृणुयात्तं च मुक्तिस्त्री-स्तत्र सौख्यं निरंतरम् । N अर्थ- तपथी कर्म क्ष्य प्राय , कर्मना क्यथी प्राणी केवलज्ञानी श्राय , तथा तेने मोदरूपी स्त्री नावरे , अने त्यां तेने निरंतर सुख मले .॥४॥
तंतप्यते यश्च तपोऽनिराम-मटाव्यते नैव जवार्णवं च ।
लंलच्यते मुक्तिकरं स सद्यो, अढप्रहारीव सुखी च लोके ॥५॥
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हिंगुल. अर्थ- जे माणस मनोहर तप तपे , तेने आ जवरूपी समुत्रमा नमवू पडतुं नश्री; अने ते तुरत मोदप्र करणं. नगरने मेलवे ने, अने दृढप्रहारीनी पेठे जगतमां ते सुखी थाय .॥५॥
(इति तपप्रक्रमः) ॥२४॥
(अथ भावप्रक्रमः) नव्यैश्च जावना जाव्या, जरतेश्वरवद्यथा। फलंति दानशीलाद्या, वृष्टया यथेह पादपाः॥१॥ | अर्थ-लव्य लोकोए जरतराजानी पेठे नावना नाववी, के जेथी वृष्टिथी अहीं जेम वृक्षो तेम दानशील आदिको फले .॥१॥
पंचभिः पंचनिर्याश्च, नावनाः पंचविंशतिः।
___ तानिर्महाव्रतान्येव, साधयंत्यमृतं पदम् ॥२॥ Ka अर्थ- पांचने पांचे गुणवाथी नावना पचीस प्रकारनी ने, अने ते जावनाउथी ( मुनि ) महात्रतोने अने मोदस्थानकने साधे . ॥२॥
दाने शीले तपस्येव, नावना मिलिता यदि ।
तदा मोदसुखाकांदा, चिंतनीया जनैरिद ॥३॥ अर्थ- दान, शील अने तपमां जो नावना मलेली होय, तोज अहीं लोकोए मोक्षसुखनी श्वाचितववी.३ |
॥२४॥
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सर्वतो देशतश्चैव, विरतिःसफला तदा । यदा जावयुता लोके, स्वर्गमोक्षसुखप्रदा॥४॥ a अर्थ- जो जावें करीने युक्त होय तोज सर्वधी अने देशथी विरति था लोकमां सफल थाय बे, तथा | स्वर्ग अने मोदना सुखने देनारी श्राय . ॥४॥
षट्खंडराज्ये जरतो निमग्न-स्तांबूलवक्तः सविनूषणश्च ।
आदर्शहर्ये जटिते सुरत्न, निं स लेने वरनावतोऽत्र ॥५॥ अर्थ-उ खंडना राज्यमा आसक्त अएला, मुखमां तांबूलवाला, तथा आजूषणवाला एवा जरत महाराजे उत्तम रत्नोथी जडेला एवा आरिसा नुवनमां पण अहीं उत्तम जावधी केवलज्ञान मेलव्युं ॥५॥
(इति जावप्रक्रमः)
(अथ पूजाप्रक्रमः) धनाढ्यत्वं च सौजाग्य, विछत्वं सुपरिबदः । एकउत्रनृपत्वं च, देवपूजाफलं मतम् ॥१॥
अर्थ- धनाढ्यपणुं, सौलाग्य, विधत्ता, उत्तम परिवार, तथा एकत्री राज्यपणुं ते सघलु देवपूजानु | फल मानेबुं . ॥१॥ दारियमय दौ ग्य, मूर्खत्वं कुपरिबदः।उर्मित्रं पुर्नृपोर्धी, नैते स्युर्देवपूजनात् ॥२॥
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प्रकरणं.
हिंगल. अर्थ- दरिषता, फु ग्यपणुं, मूर्खपणुं, जुष्ट परिवार, इष्टमित्र, मुष्ट राजा, तथा कुष्ट बुद्धि एटलावाना-
हा देवपूजाथी थतां नथी.॥२॥
यो हि देवार्चनं कुर्यात्,सैव हस्तःप्रशंसका तहिना च सर्वस्यापि, करो नीरर्थको मतः॥३॥ ॥२५॥ IN अर्थ-जेहाथ देवपूजा करे, तेज हाथ प्रशंसनीक बे, अने ते देवपूजा विना सर्वनो हाथ निरर्थक मानेलो.
येदेवा ये पुमांसश्च, शुद्धसम्यक्त्वधारिणः।थाप्नुयुर्देवपूजां ते, तिर्यंचो नारका न च ॥४॥ ___ अर्थ-जे देवो तथा पुरुषो शुभ समकीतने धरनारा , तेज देवपूजाने मेलवी शके , पण तिर्यंच के नारकी मेलवी शकता नथी. ॥४॥
देवार्चनं जव्यजनैविधेयं, निरंतरं निर्मलजावयुक्तैः।
सौजाग्यमत्र त्रिदिवं परत्र, सुर्याजवन्मुक्तिप्रदं क्रमेण ॥ ५॥ अर्थ-निर्मल नाववाला एवा जव्य लोकोए हमेशां देवपूजन करवू; के जेथी अहीं सौजाग्य तथा परलोकमां देवलोक मले , तथा अनुक्रमे सूर्याननी पेठे मोद देनारं श्राय . ॥५॥
(इति पूजाप्रक्रमः)
(अथ गुरुप्रक्रमः) प्रश्रयोमयोऽपि यो मर्त्यः, सुवर्णमुकुटोपमः । कृतो यशुरुणा नालं, तस्योपकारपूर्तये ॥१॥
॥॥२५॥
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- लोखंड सरखा माणसने पण जेमणे सुवर्णना मुकुट सरखो बनाव्यो बे, एवा गुरुना उपकारनो बदलो वाली शकातो नथी. ॥ १ ॥
गुरुः प्रवढ्णं सम्यक् संसारार्णवतारणे । यथा केशी कुमारोऽभूत्, प्रदेशी नृपतारकः ॥ २ ॥ अर्थ संसाररूपी समुने तारवामां गुरु उत्तम वहाण समान बे, जेम केशी कुमारमुनि प्रदेशी राजाने तारनारा थया ॥ २ ॥
हर्म्यज्योतिर्निशाज्योति-रहज्र्ज्योतिस्ततोऽधिकः ।
गुरुज्योतिश्च येनाहं, तेजःपुंजमयः कृतः ॥ ३ ॥
अर्थ- दीपक, चंद्र, तथा सूर्यथी पण गुरुरूपी दीवो अधिक बे, के जेमणे मने तेजना समूहमय कर्यो बे ॥३॥ इवलंबनं स्तंनो, दंको वृद्धावलंबनम् ।
देहावलंबनं जोज्यं, जव्यावलंबनं गुरुः ॥ ४ ॥
अर्थ- जे घरनुं अवलंबन स्तंभ बे, वृद्धनुं अवलंबन लाकडी बे, तथा शरीरनुं अवलंबन जेम जोजन बे, तेम जव्योना अवलंबनजूत गुरु बे. ॥ ४ ॥
गुरुयैश्च लब्धो वरो वीरनाथः, सदानंदमुख्यैर्दशश्रावकैश्च ।
प्रसादात्ततः स्वर्गसौख्यं जजंति, मानुष्यं जवं प्राप्य मुक्तीश्वरास्ते ॥ ५ ॥
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हिंगुख.
॥१६॥
अर्थ- आनंद श्रादिक जे दश श्रावकोए श्री वीरनगवानरूपी उत्तम गुरुने मेलव्या हता, ते गुरुनी || प्रकरणं. कृपाथी ते स्वर्गना सुखने नजे जे, तथा बेवटे मनुष्यन्नव पामीने ते मुक्तिना स्वामी थशे.॥५॥
(इति गुरुपक्रमः)
(अथ उद्यमप्रक्रमः) उद्यमेन विना विछन् ,न सिध्यंति मनोरथाः। तीर्थंकरपदं खेने, रेवत्युद्यमहेतुतः॥१॥ का अर्थ- हे विधान् ! उद्यमविना मनोरथो सिद्ध अता नथी; केमके, उद्यमना हेतुथी रेवतीए तीर्थकर
पद मेलव्यु ले. ॥१॥ नविष्यतीति यन्नाव्यं, वदंत्यालस्यदेहिनः।शानिनश्चेति जल्पंति, खन्नेरन् धर्मतो जयम्
अर्थ- जे थवानुं होशे ते अशे, एम श्रावसु माणसो बोले डे, अने ज्ञानी तो एम कहे जे के, धर्मश्री जय मले. ॥२॥ तंज्ञां विहाय कर्तव्यः,प्राणिनिःसर्वथोद्यमः। दानशीलतपोजावाः, सार्थाः स्युर्जिनशासने | al अर्थ- बालसने तजीने प्राणीउए सर्वथा प्रकारे उद्यमज करवो; के जेथी जिनशासनमा दान, शील, तप अने नाव सार्थक थाय. ॥३॥
॥२६॥
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मौनं कृतं मसी जिनेन चात्र, तप्तं तपश्चादिजिनेन तीव्र ।
नानोपसर्गाः सहितास्तु वीरैः, कोऽप्युद्यमं वारयितुं समर्थः ॥ ४ ॥ GI अर्थ- अहीं महीनाथ प्रनुए मौन धारण कर्यु हतुं, आदिनाथ प्रनुए आकरो तप को हतो, तथा| CI वीर प्रन्नुए नाना प्रकारना उपसर्गो सहन कर्या हता; माटे उद्यमने निवारवाने कोण समर्थ ?॥४॥
(इति उद्यमप्रक्रमः)
इति श्री विनयसागरोपाध्याय विरचितं हिंगुलप्रकरणं समाप्त
गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् ॥
25 SSதைககெட்டுகளிலும்
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