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कथा-साहित्य
वातावरण और परिस्थितियो के होनेपर उत्तम कार्य करता है । इस कथाका प्रधान पात्र देवदत्त और नायिका रूपसुन्दरी है ।
रूपसुन्दरी कृपक भार्या है और देवदत्त धूर्त साधु-कुमार । दोनोका स्नेह हो जाता है । रूपसुन्दरी कामान्ध हो अपना सतीत्व खो देना चाहती है, पर एक मुनिराज के दर्शनसे उसे आत्मबोध प्राप्त हो जाता है । धूर्त देवदत्त उसके पतिका मायावी भेष धर कर आता है और वास्तविक पतिसे झगडा करने लगता है । रूपसुन्दरी एक ही रूपके दो पुरुपोको देखकर सशकित हो जाती है और अपना न्याय करानेके लिए न्यायालयकी शरण लेती है । अभयकुमार यथार्थ न्याय करता है और सतीके दिव्य तेजसे प्रजा नाच उठती है । कपटी देवदत्त को अपने कुकृत्यपर पश्चात्ताप होता है और रूपसुन्दरीके चरणोमे गिर क्षमा याचना करता है । चारों ओर सतीकी जय-जय ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है ।
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चारित्रिक विकास की दृष्टिसे वह कथा सुन्दर है। मनुष्य कमजोरियोका पुतला है, कोई भी नर नारी किसी भी क्षण किस रूपमे परिवर्तित हो सकता है, इसका कुछ भी ठीक नही है । द्वन्द्वात्मक चारित्र मानव जीवनकी विशेष निधि है । लेखकने कथोपकथनोको प्रभावोत्पादक बनाने का पूरा प्रयत्न किया है ।
'मुझे तेरे मधुप्रेमका एकवार स्वाद मिले तो ?"
"हॅ ! ऐसे अभद्र शब्द, खवरदार, फिर मुँहसे न निकालना | तेरे जैसे नीच मनुष्योंको तो मेरा दर्शन भी न होगा ।"
नारी पात्रोका आदर्श चरित्र प्रस्तुत करनेमे श्री ५० मूलचन्द्र 'वत्सल' का नाम भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । आपने पुराने जैन कथानकोको लेकर नवीन ढगसे अनेक सतियों और देवियोंके चरित्रोको प्रस्तुत किया है । यद्यपि शैली परिमार्जित है, तो मी पूर्णतया आधुनिक टेकनिकका निर्वाह किसी भी कथामे नहीं हो सका है। 'सती - रत्न " मे कुमारी १. प्रकाशक - साहित्य रत्नालय, बिजनौर।