Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 200
________________ २०४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन उज्वळ करना होता है। कवि बनारसीदास कहता है कि हे भाई! तूने वनवासी बनकर मकान और कुटुम्ब छोड़ भी दिया, परन्तु स्व-परका भेद ज्ञान न होनेसे तेरी ये क्रियाएँ अयथार्थ है। जिस प्रकार रक्तसे रंजित वस्त्र रक्त द्वारा प्रक्षालन करनेपर स्वच्छ नहीं हो सकता है, उसी प्रकार ममत्व भावसे ससार नहीं छूट सकता है । तु अपने धनीको समझ, उससे प्रेम कर और उसी के साथ रमण कर । है वनवासी ते वजा, घर वार मुहल्ला । अप्पा पर न विछाणियाँ, सब झूठी गल्ला। ज्या रुधिरादि पुट्ट सों, पट दीसे लल्ला । रुधिराजलहिं पखलिए, नहीं होय उज्जला ॥ किण तू जकरा साँकला, किण एकड़ा मल्ला । मिद मकरा ज्यो उरझिया, उर माप उगला ॥ तीसरी रहस्यवादकी वह स्थिति है, जिसमें भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर आत्मा अपने प्रियतम रूपी शुद्ध दशाके साथ विचरण करने लगती है। हर्षके झूमे चेतन झुलने लगता है, धर्म और कर्मके सयोगसे स्वभाव और विभाव रूप-रस पैदा होता है। ___ मनके अनुपम महल्मे सुरुचि रूपी सुन्दर भूमि है, उसमे ज्ञान और दर्शनके अचल खम्भे और चरित्रकी मजबूत रस्सी लगी है। यहाँ गुण और पर्यायकी सुगन्धित वायु बहती है और निर्मल विवेक रूपी भौरे गुंजार करते है। व्यवहार और निश्चल नयकी डण्डी लगी है, सुमतिकी पटली विछी है तथा उसमे छ: द्रन्यकी छः कीले लगी हैं । कोका उदय और पुरुषार्थ दोनों मिलकर झोटा-धक्का देते है, जिससे शुभ और अशुभ की किलोलें उठती है। संवेग और सवर दोनो सेवक सेवा करते हैं और व्रत ताम्बूलके बीड़े देते है। इस प्रकारकी अवस्थामें आनन्द रूप चेतन अपने आत्म-सुखकी समाधिम निश्चल विराजमान है। धारणा, समता,

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