Book Title: Hindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 237
________________ परिशिष्ट सो भेजी जयपुर विपैं, नाम सदासुख जास । सो पूरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥ अग्रवाल कुल श्रावक कीरतचन्द्र जु भरे माँहि सुवास । परमेष्ठीसहाय तिनके सुत, पिता निकट करि शास्त्राभ्यास || कियो अन्य निज परहित कारण, लखि बहु रुचि जगमोहनदास । तत्वारथ अधिगमसु सदासुख, दास चहूँ दिश भर्थ प्रकाश ॥ इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि प० परमेष्ठीसहायके पिताका नाम कीर्तिचन्द्र था। उन्हीं के पास जैनागमका अध्ययन किया था तथा अपनी कृति अर्थप्रकाशिकाको जयपुरनिवासी प्रसिद्ध वचनिकाकार पं० सदासुखनीके पास संशोधनार्थ भेजा था । २४१ पं० नगमोहनदास अच्छे कवि थे। इनकी कविताओका एक संग्रह 'धर्मरत्नोद्योत' नामसे स्व० प० पन्नालालजी वाकलीवालके सम्पादकत्वमे प्रकाशित हो चुका है । हमारा अनुमान है कि इनका जन्म सवत् १८६५-७० होना चाहिए; क्योंकि प० सदासुखजी इनके समकालीन हैं। और सदासुखजीका जन्म संवत् १८५२ में हुआ था । अतएव सदासुखनीसे कुछ छोटे होनेके कारण पं० जगमोहनदासका जन्म सवत् १८६५ और मृत्यु १९३५ में हुई है। परमेष्ठीसहायने अर्थप्रकाशिकाको सवत् १९१४ मे पूर्ण किया है। धर्मरत्नोद्योतकी अन्तिम प्रशस्ति निम्न है "मिती कार्त्तिक कृष्ण १० संवत् १९४५ पोथी दान किया बाबू परमेष्ठीसहाय भार्यां जानकी बीबी आरेके पंचायती मन्दिरजी मैं पोथी धर्मरत्न ग्रन्थ " । कविताकी दृष्टिसे प० जगमोहनदासकी रचनामे शैथिल्य है । छन्दोभंगके साथ प्रवाहका भी अभाव है; पर जैनागमका सार भाषामे अवश्य इनकी रचनामे उपलब्ध होगा। छप्पय, सवैया, दोहा, चौपाई, गीतिका आदि छन्दोंका प्रयोग किया है। १६

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