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१५८ . हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन सवैया तेईसा
या घटमें अमरूप अनादि, विलास महा अविवेक अखारो। तामहि और सरूप न दीसत, पबल नृत्य कर अतिभारो॥ फेरत भेप दिखापत कौतुक, सो जलिये वरनादि पसारो। मोहसु मिन्न जुदो जड सों, चिनमृति नाटक देखन हारो॥
-नाटक समयसार रा९: मैवया इकतीसा
जैसे गजराज नाज धासके गरास करि, भक्षत सुभाय नहि मिन रस लिया है। जैसे मतवारो नहि जाने सिखरनि स्वाद, जुंगमें मगन कहै गऊ दूध पियो हैं। तैसे मिथ्यामति नीव ज्ञानरूपी है सदीव, पग्यो पाप पुन्यसा सहन सुन्न हिओ है। चेतन अचेतन दुहको मिश्र पिण्ड लखि,
एकमेक मानै न विवेक ऋतु किया है। पद्मावती छन्दका प्रयोग कवि बनारसीदासने हत्तरगोंको किस प्रकार आलोकित करनेके लिए किया है, यह निम्न उदाहरणसे स्पष्ट है। जिस प्रकार वाथुके झोंकेसे नदीम कभी हल्की तरंग और कभी उत्ताल तरंग तरगित होती है, उसी प्रकार कविने बल्पघात द्वारा ल्यात्मक पदाविधानको प्रदर्शित किया है
ताकी रति कीरति दासी सम, सहसा रानरिदि घर आये। सुमति सुता उपनै ताके घट, सो सुरलोक सम्पदा पावै ॥ ताकी दृष्टि लखै शिवमारग, सो निरवन्ध भावना भावे । जो नर त्याग कपट कुंवरा कह, विधिसों ससखेत धन बावै ॥
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-बनारसी विलास पृ०५७