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कथा-साहित्य महोदय । प्रजाका धर्म ही राजाका धर्म है। मेरा भी वही धर्म है, जो प्रनाका है। मै हर धर्म और जातिका संरक्षक हूँ"। रक्षाबन्धन पर्वका प्रचलन भी मुनिरक्षाके कारण हुआ है, यह कथा इस बातकी पुष्टि • करती है। - गुरु दक्षिणा' यह कहानी लेखकके हृदयका प्रतिविम्ब प्रतीत होती • है। इसमें मृदुल और कर्कश कर्त्तव्यों के मध्य नारी हृदयका स्नेह प्रवाहित : है । पर्वतका भीपण दम्म और नारदका यथार्थ तर्क नारी हृदयको विच
ल्ति कर देते हैं, करुणा और वात्सल्यकी सरिता उसे वहा ले जाती है वास्तविक क्षेत्रके उस पार, जहाँ वसुका भौतिक शरीर बिना पतवारकी
भॉति डगमग हो रहा है । मन्त्रीके वचनसे वसु चौक पड़ा-"निर्णय" . वह बोला । इस कहानीका स्तम्भ है सत्य और वचन पालनका हद : निश्चय । पर्वतका पक्ष ठीक है, मैं निर्णय देता हूँ"।
निर्दोप' यह कहानी मानवकी वासनाओ और कमजोरियोपर पूरा , प्रकाश डालती है। कामुक व्यक्तिकी विचारशक्तिका किस प्रकार लोप हो
जाता है और दृढ संकल्पी व्यक्ति ससारके सारे प्रलोभनोको किस प्रकार ठुकरा देता है, यह इससे स्पष्ट हुए विना नहीं रह सकता। नारी-हृदय कितना संकुचित और दम्भी हो सकता है, यह रानीके वचनोंसे प्रत्यक्ष है "महाराजको सूचना दो, यह नीच मुझसे बलात्कार करना चाहता था। पापी जब अपनी गलतीको समझ लेता है, तो उसका पाप नहीं रहता, बल्कि कमजोरी माना जाता है । दम्भ और पाखण्डमे ही पापका निवास है। पश्चात्तापकी उष्णतासे पाप जल जाता है, पानी या द्रव-पदार्थ हो नालीसे वह जाता है। रानी भी कह उटती है-"मुझ पापिनीको क्षमा करो सुदर्शन" । पुरुपके हृदयकी उदारता भी यही व्यक्त होती है, और सुदर्जन कहता है-"माँ मैं निर्दोष हूँ"।
आत्माकी शक्किमें बताया गया है कि आत्मशक्ति ससारकी समस्त शक्तियोकी अपेक्षा अद्वितीय है। जब इस शक्तिका विकास हो जाता है।