Book Title: Hindi Jain Kalpasutra
Author(s): Atmanand Jain Sabha
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पाँच दिन और नव वांचनाओं से श्रीकल्पसूत्र को चाँचते हैं। इस कल्पसूत्र में ( कल्प ) शब्द से साधुओं का आचार कहा जाता है। उस आचार के दश भेद हैं, जो इस प्रकार हैं १ आचेलक्य, २ औद्देशिक, ३ शय्यातर, ४ राजपिण्ड, ५ कृतिकर्म, ६ व्रत, ७ ज्येष्ठ, ८ प्रतिक्रमण, ९ मासकल्प, और १० पर्युषणा, इन दश कल्पों की व्याख्या इस प्रकार है: १ आचेलक्य जिस के पास चेल याने वस्त्र न हो वह अचेलक कहा जाता है, उस अचेलक का भाव सो 'आचेलक्य ' अर्थात् वस्त्र का न होना । वह तीर्थकरों को आश्रित कर के रहा हुआ है । उस में पहले और अन्तिम तीर्थंकर को शक्रेन्द्र द्वारा मिले हुए देवदूष्य वस्त्र के दूर होने पर उन्हें सर्वदा अचेलक अर्थात् वस्त्र रहित होना सिद्ध है और दूसरे बाईस तीर्थंकरों को सदा सचेलक कहा है । साधुओं की अपेक्षा से श्री अजितनाथ आदि ब तीर्थंकरों के तीर्थ के साधु, कि जो सरल और प्राज्ञ कहलाते हैं उन्हें अधिक मूल्यवान विविधरंगी वस्त्रों के उपभोग की आज्ञा होने से सचेलकत्व अर्थात् वस्त्र सहितपणा है और कितने एक श्वेतरंगी बहु परिमाण वाले वस्त्र को धारण करनेवाले होने के कारण उन्हें अचेलकत्व ही है । इस प्रकार उनके लिए यह कल्प अनियमित रूप से है । जो श्री ऋषभ और श्री वीर प्रभु के तीर्थ के साधु हैं वे सब श्वेत और परिमाणवाले जीर्ण - पुराने वस्त्र धारण करनेवाले होने के कारण अचेलक ही हैं । यहाँपर शंका होती है कि वस्त्र का सद्भाव होने पर भी For Private And Personal

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