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बद्री
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फाटक मिलता है । भीतर सामने भगवानका मंदिर है। मन्दिरके सभामण्डपमें तीन दरवाजे हैं। प्रधान पूर्वमें, दूसरा दक्षिणमें और तीसरा उत्तरमें है। पूर्वके दुवारसे ५०-६० यात्रियोंकी गोल भीतर जाती है, किर फाटक बंद हो जाता है । जब वे दर्शन करके दक्षिण द्वारमें बाहर निकलते है तब पूर्वके दुवारसे दूसरा गोल प्रवेश करता है। यही क्रम अनवरत जारी रहता है। इन दोनों दरवाजोपर प्रबन्धके लिये रावलके सिपाही हर समय खड़े रहते है । उत्तरका दरवाजा बंद रहता है। वह आवश्यकतानुसार कभी-कभी खुलता है । पण्डे-पुजारियोंकी तरह यात्रियोंसे सिपाही भी पुरस्कार मांगते हैं, उन्हें कुछ दे देनेसे दर्शन करनेमें सुगमता होती है । सभामण्डपके पश्चिम मन्दिरमें श्रीबदरीनाथकी ध्यानपरायण एक हाथ ऊंची काले पत्थरकी मूर्ति है । ललाटपर हीरा चमकता हैं । सुवर्णका छत्र उपर टंगा रहता है । प्रातःकालमें निर्वाणदर्शन होता है । मूर्तिपरसे वखाभूषण हटाकर रावलजी स्नान कराते है। दिनमें आठ-नौ बजेके बीच में प्रथम आरती होती है। दस बजे दाल भातका भोग लगता है। एक बजेतक पट खुला रहता है, फिर चार बजे शृंगारका दर्शन होता है। संध्या-समय सुवर्ण-थालके बीच नौ कटोरियों में भिन्न-भिन्न पकान्न सजाकर भगवानके सामने आता है । रसोई डिमरी जातिके ब्राह्मण बनाते है । पूजा और भोग लगाना एकमात्र रावल ही करते है । यात्री तो पांच हायकी दूरीसे दर्शन पाते हैं, उन्हें मूर्तिका स्पर्श करनेका अधिकार नहीं है। मूर्तिके पास अंधेरा रहता है इसलिये चौवीसों घड़ी घृतके दीपक जलते रहते है ।
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