Book Title: Gyanbindu Parichaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ जैन धर्म और दर्शन बिन्दु' में उपाध्यायजी ने किया भी है । श्राचार्य हरिभद्र के बिन्दु अन्तवाले 'योगबिन्दु' और 'धर्मबिन्दु' प्रसिद्ध हैं। इन बिन्दु' अन्तवाले नामों की मुंदर और सार्थक पूर्व परंपरा को उपाध्यायजी ने प्रस्तुत ग्रंथ में व्यक्त करके 'ज्ञानार्णव और 'ज्ञानबिन्दु' की नवीन जोड़ी के द्वारा नवीनता भी अर्पित की है । २. विषय ग्रन्थकार ने प्रतिपाद्य रूप से जिस विषय को पसन्द किया है वह तो ग्रन्थ के. नाम से ही प्रसिद्ध है। यों तो ज्ञान की महिमा मानववंश मात्र में प्रसिद्ध है, फिर भी आयें जाति का वह एक मात्र जीवन-साध्य रहा है। जैन परंपरा में ज्ञान की आराधना और पूजा की विविध प्रणालियों इतनी प्रचलित हैं कि कुछ भी नहीं जाननेवाला जैन भी इतना तो प्रायः जानता है कि ज्ञान पाँच प्रकार का होता है। कई ऐतिहासिक प्रमाणों से ऐसा मानना पड़ता है कि ज्ञान के पाँच प्रकार, जो जैन परंपरा में प्रसिद्ध हैं, वे भगवान् महावीर के पहले से प्रचलित होने चाहिए । पूर्वश्रुत जो भगवान महावीर के पहले का माना जाता है और जो बहुत पहले से नष्ट हुआ समझा जाता है, उसमें एक 'ज्ञानप्रवाद' नाम का पूर्व था जिसमें श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपरा के अनुसार पंचविध ज्ञान का वर्णन था। __ उपलब्ध श्रुत में प्राचीन समझे जानेवाले कुछ अंगों में भी उनकी स्पष्ट चर्चा है । 'उत्तराध्ययन २ जैसे प्राचीन मूल सूत्र में भी उनका वर्णन है । 'नन्दिसूत्र' में तो केवल पाँच ज्ञानों का ही वर्णन है । 'आवश्यकनियुक्त' जैसे प्राचीन व्याख्या ग्रन्थ में पाँच ज्ञानों को हो मंगल मानकर शुरू में उनका वर्णन किया है। ३ कर्म विषयक साहित्य के प्राचीन से प्राचीन समझे जानेवाले ग्रन्थों में भी पञ्चविध ज्ञान के आधार पर ही कर्म-प्रकृतियों का विभाजन है, जो लुप्त. हुए 'कमवाद' पूर्व की अवशिष्ट परंपरा मात्र है । इस पञ्चविध ज्ञान का सारा स्वरूप दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसे दोनों ही प्राचीन संघों में एक-सा रहा है । यह सब इतना सूचित करने के लिए पर्यास है कि पञ्चविध ज्ञान विभाग और उसका अमुक वर्णन तो बहुत ही प्राचीन होना चाहिए । प्राचीन जैन साहित्य की जो कार्मग्रन्थिक परंपरा है तदनुसार मति, श्रुत, । १ 'अत एव स्वयमुक्तं तपस्विना सिद्धान्तबिन्दौं--पृ० २४ । २ अध्ययन २८, गा० ४५ । ३ आवश्यकनियुक्ति, गा० १ से आगे। ४ पंचसंग्रह, पृ० १०८. गा० ३ । प्रथम कर्मग्रन्थ, गा० ४ । गोम्मटसार जीवकांड, गा० २६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 80