Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ ३७६ जैन धर्म और दर्शन ऐसा अर्थ ज्ञानबिंदु शब्द का विवक्षित है । जब ग्रंथकार अपने इस गंभीर, सूक्ष्म और परिपूर्ण चर्चावाले ग्रंथ को भी बिंदु कहकर छोटा सूचित करते हैं, तब यह प्रश्न सहज ही में होता है कि क्या ग्रंथकार, पूर्वाचार्यों को तथा अन्य विद्वानों की ज्ञानविषयक श्रति विस्तृत चर्चा की अपेक्षा, अपनी प्रस्तुत चर्चा को छोटी कहकर वस्तुस्थिति प्रकट करते हैं या श्रात्मलाघव प्रकट करते हैं; अथवा अपनी इसी विषय की किसी अन्य बड़ी कृति का भी सूचन करते हैं ? इस त्रिग्रंशी प्रश्न का जवाब भी सभी अंशों में हाँ रूप ही है । उन्होंने जब यह कहा कि मैं श्रुतसमुद्र' से 'ज्ञानबिंदु' का सम्यग् उद्धार करता हूँ, तब उन्होंने अपने श्रीमुख से यह तो कह ही दिया कि मेरा यह ग्रंथ चाहे जैसा क्यों न हो फिर भी वह श्रुतसमुद्र का तो एक बिंदुमात्र है । निःसन्देह यहाँ श्रुत शब्द से ग्रंथकार का अभिप्राय पूर्वाचार्यों को कृतियों से है । यह भी स्पष्ट है कि ग्रन्थकार ने अपने ग्रंथ में, पूर्वश्रुत में साक्षात् नहीं चचीं गई ऐसी कितनी ही बातें निहित क्यों न की हों, फिर भी वे अपने आपको पूर्वाचार्यों के समक्ष लघु ही सूचित करते हैं । इस तरह प्रस्तुत ग्रंथ प्राचीन श्रुतसमुद्र का एक अंश मात्र होने से उसकी अपेक्षा तो अति अल्प है ही, पर साथ ही ज्ञानबिंदु नाम रखने में ग्रंथकार का और भी एक अभिप्राय है । वह अभिप्राय यह है कि वे इस ग्रंथ की रचना के पहले एक ज्ञानविषयक अत्यन्त विस्तृत चर्चा करनेवाला बहुत बड़ा ग्रन्थ बना चुके थे जिसका यह ज्ञानबिंदु एक अंश है । यद्यपि वह बड़ा ग्रंथ, श्राज हमें उपलब्ध नहीं है, तथापि ग्रन्थकार ने खुद ही प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका उल्लेख किया है; और यह उल्लेख भी मामूली नाम से नहीं किन्तु, 'ज्ञानार्णव'' जैसे विशिष्ट नाम से। उन्होंने मुक चर्चा करते समय, विशेष विस्तार के साथ जानने के लिए स्वरचित 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ की ओर संकेत किया है । 'ज्ञानबिंदु' में की गई कोई भी चर्चा स्वयं ही विशिष्ट और पूर्ण है । फिर भी उसमें अधिक गहराई चाहनेवालों के वास्ते जत्र उपाध्यायजी 'ज्ञानार्णव' जैसी अपनी बड़ी कृति का सूचन करते हैं, तब इसमें कोई सन्देह ही नहीं है कि वे अपनी प्रस्तुत कृति को अपनी दूसरी उसी विषय की बहुत बड़ी कृति से भी छोटी सूचित करते हैं । १ देखो पृ० ३७५ टि० २ । २ श्रधिकं मत्कृतज्ञानार्णवात् श्रवसेयम् - पृ० १६ । तथा ग्रंथकार ने शास्त्र वार्तासमुच्चय की टीका स्याद्वादकल्पलता में भी स्वकृत ज्ञानार्णव का उल्लेख किया है - ' तत्त्वमत्रत्यं मत्कृतज्ञानायादव सेयम्' – पृ० २० | दिगम्बराचार्य शुभचन्द्र का भी एक ज्ञानार्णव नामक ग्रंथ मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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