Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 5
________________ भूमिका। वर्षाका जल जिस शुद्ध रूपमें बरसता है, उस रूपमें नहीं रहता; आकाशसे नीचे उतरते उतरते और जलाशयोंमें पहुँचते पहुँचते वह विकृत हो जाता है और इसके बाद तो उसमें इतनी विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि उनके मारे उसके वास्तविक स्वरूपका हृदयंगम कर सकना भी दुष्कर हो जाता है। फिर भी जो वस्तुतत्त्वके मर्मज्ञ हैं, पदाथोंका विश्लेषण करनेमें कुशल या परीक्षाप्रधानी हैं, उन्हें उन सब विकृतियोंसे पृथक वास्तविक जलका पता लगानेमें देर नहीं लगती है। परमहितैषी और परम वीतराग भगवान् महावीरकी वाणीको एक कविने जलवृष्टिकी उपमा दी है, जो बहुत ही उपयुक्त मालूम होती है। पिछले ढाई हजार वर्षोंका उपलब्ध इतिहास हमें बतलाता है कि भगवान्का विश्वकल्याणकारी समीचीन धर्म जिस रूपमें उपदिष्ट हुआ था, उसी रूपमें नहीं रहा, धीरे धीरे वह विकृत होता गया, ज्ञात और अज्ञातरूपसे उसे विकृत कर. नेके बराबर प्रयत्न किये जाते रहे और अब तक किये जाते हैं । सम्प्रदाय, संघ, गण, गच्छ, आम्नाय, पन्थ आदि सब प्रायः इन्हीं विकृतियोंके परिणाम हैं । भगवानका धर्म सबसे पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदायोंमें विभक्त हुआ, और उसके बाद मूल, यापनीय, द्रविड़, काष्ठा, माथुर, आदि नाना संघों और उनके गणों तथा गच्छोंमें विकृत होता रहा है। यह असंभव है कि एक धर्म के इतने भेद प्रभेद होते जायँ और उसको मूल प्रकृतिपर विकृतियोंका प्रभाव नहीं पड़े। यद्यपि सर्वसाधारण जन इन सम्प्रदायों और पन्थोंके विकारसे विकृत हुए धर्मका वास्तविक शुद्ध स्वरूप अवधारण नहीं कर सकते हैं, परन्तु समय समयपर ऐसे विचारशील विवेकी महात्माओंका जन्म अवश्य होता रहता है जो इन सब विकारोंका अपनी रासायनिक और विश्लेषक बुद्धिसे पृथक्करण करके वास्तविक धर्मको स्वयं देख लेते हैं और दूसरोंको दिखा जाते हैं। जो लोग यह समझते हैं कि वर्तमान जैनधर्म ठीक वही जैनधर्म है जिसका उपदेश भगवान् महावीरकी दिव्यवाणीद्वारा हुआ था, उसमें जरा भी परिवर्तन, परिवर्द्धन या सम्मेलन नहीं हुआ है-अक्षरशः ज्योंका त्यों चला आ रहा है, उन्हें धर्मात्मा या श्रद्धालु भले ही मान लिया जाय; परन्तु विचारशील नहीं कहा जा सकता। यह संभव है कि उन्होंने शास्त्रोंका अध्ययन किया हो, वे शास्त्री या पण्डित कहलाते हों; परन्तु शास्त्र पढ़ने या परीक्षायें देनसे ही यह नहीं कहा जा सकता है कि वे इस विषयमें कुछ गहरे पैठ सके हैं । जो लोग यह जानते हैं कि मनुष्य रागद्वेषसे युक्त हैं, अपूर्ण हैं और उनपर देश-कालका कल्पनातीत प्रभाव पड़ता है, वे इस बातपर कभी विश्वास नहीं करेंगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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