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भाषण-कला
सन् १९१७ का प्रसंग है। नासिक में कांग्रेस समिति का अधिवेशन था। स्वराज्य पर दादासाहब खापरडे और दादासाहब केलकर ने बहुत ही लम्बे भाषण दिये । जनता उनके भाषणों से ऊब चुकी थी। अन्त में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का भाषण था। तिलक ने अनुभव किया कि जनता भाषण सुनने के मूड में नहीं है। उन्होंने अपना भाषण प्रारम्भ करते हुए कहा-'मेरे प्यारे मित्रो! आप इतने समय तक दो दादाओं के उपदेश सुन रहे थे। इन दादाओं के पश्चात् मैं बालक आपको क्या उपदेश दूँ ?
श्रोताओं ने इतना सुनते ही हंसी के फव्वारे फूंक दिये और फिर उन्होंने जो भाषण दिया उससे जनमानस मंत्र-मुग्ध हो उठा।
यह है भाषण-कला का चमत्कार ।
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