Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 152
________________ समस का फेर १३७ है। हमारे गुरु को पैर का पंजा दिखाकर कुचलने की बीभत्स भावना प्रदर्शित की। __दोनों ही सन्तों ने मधुर मुसकान बिखरते हुए कहा-आप लोग व्यर्थ ही संघर्ष कर रहे हैं। यह सुनते ही लोगों ने कहा-व्यर्थ संघर्ष कैसे ? आपने फूंक मारकर हमारे गुरुजी का अपमान नहीं किया ? तो दूसरे भक्त चिल्ला उठे-आपने पंजा दिखाकर हमारे गुरु का तिरस्कार नहीं किया ? दोनों ही सन्तों ने भीड़ के कोलाहल को शान्त करते हुए कहा-तुम दोनों हमारे भक्त नहीं हो। दोनों ही भक्तों की टोली चिल्लायी-हम आपके लिए ही तो जान देने के लिए तैयार हैं, फिर आपके अनुयायी कैसे नहीं हुए ? । पहले सन्त ने कहा--आज वर्षों के पश्चात् हम दोनों मिले थे। मैंने फूंक मारकर अपने स्नेही सन्त से कहा-एक क्षण का भी भरोसा नहीं है । अतः साधना में विलम्ब न करो। तो मेरे स्नेही सन्त ने पंजा उठाकर बताया कि मैं निरन्तर साधना में आगे बढ़ दोनों सन्तों के अनुयायी अपनी मनगढन्त कल्पना पर पश्चात्ताप करने लगे। Jain Education Internationate & Personal Usev@rainelibrary.org

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