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- सभी शब्द 'सक्क' में समविष्ट हैं, लेकिन 'इंद' शब्द नवीन है इसीलिए विशेष - लक्ष्यपूर्वक इसको अलग लिया गया है ।
अनेक स्थलों पर एक एकार्थक के अन्तर्गत नवीन शब्द की दृष्टि से तीनचार एकार्थकों का समावेश उसी के नीचे कर दिया है, जैसे—
१. आणत्ति उववायो त्ति उवदेसो त्ति आगमो त्ति वा एगट्ठा । २. आणे ति वा सुतं ति वा वीतरागादेसो त्ति वा एगट्ठा ।
३. आण त्ति वा नाण त्ति वा पडिलेहि त्ति वा एगट्ठा ।
४. आणा-उववाय-वयण - निद्देसे |
प्रस्तुत कोश में एक ही शब्द के पर्याय विभिन्न शब्दों से प्रारम्भ हो रहे हैं। इससे उस शब्द विषयक अनेक पर्यायों का ज्ञान सहज ही हो सकता है । जैसे माया के एकार्थक 'उक्कंचण', 'कूड', 'कवड', 'माया', 'कक्क', 'पलिउंचण' आदि विभिन्न शब्दों से प्रारम्भ हो रहे हैं । इनको एक स्थान पर देने से अनुक्रमणिका के क्रम में असुविधा थी । लेकिन किसी भी शब्द के ज्ञान के लिए परिशिष्ट - १ सहयोगी हो सकता है ।
अनेक स्थलों पर एक संस्कृत के शब्द के दो प्राकृत रूपों को एकार्थंक माना है । जैसे - इसित्ति वा रिसित्ति वा एगट्ट । अणं ति वारिणं ति वा एगट्ठा | भवति त्ति वा हवइत्ति वा एगट्ठा। यहां ऋषि ऋण और भवति शब्द के ही दो प्राकृत रूप बने हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत व्याकरण - का ज्ञान भी एकार्थकों के माध्यम से कराया जाता था ।
इसी प्रकार कहीं कहीं चूर्णिकारों ने सामान्य एकार्थकों का प्रयोग किया है जैसे - उभओ त्ति वा दुहओ त्ति एगट्ठा बहवे त्ति वा अणेगे त्ति वा एगट्ठा । ऐसे एकार्थकों का प्रयोग प्राचीन पाठन पद्धति पर विशेष महत्व डालते हैं ।
भगवती सूत्र में क्रोध आदि चारों कषायों के एकार्थक उल्लिखित हैं । समवायांग में 'मोहनीय कर्म' के पर्याय के रूप में वे ही नाम संगृहीत हैं । क्रोधादि के तथा मोहनीय कर्म के पर्यायों को शब्द-गत समानता होने पर भी अर्थभेद की दृष्टि से अलग ग्रहण किया है ।
कहीं कहीं एक ही गाथा दो भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त है । उसको भी हमने अलग अलग ग्रहण किया है । जैसे पावे वज्जे वेरे......
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